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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
है अर्थात् उस वाणी को अनेक प्राणी समझे इसमें आश्चर्य ही क्या है ? कहा भी है कि:
नय सप्तशती सप्त-भंगीसंगीतसंगतिम् । जायन्ते
शृण्वन्तो यद्गिरं भव्या,
श्रुतपारगाः ॥१॥
भावार्थ:- सात नय के सातसो भंगों से और सप्तभंगी की रचना से मिश्रित - युक्त भगवान की वाणी को सुनकर अनेक भव्यप्राणी श्रुत के पारगामी होते हैं ।
( ३ ) भगवान के मस्तक के पीछे बारह सूर्यबिंब की कान्ति से भी अधिक तेजस्वी और मनुष्यों को मनोहर प्रतीत होनेवाला भामंडल अर्थात कान्ति के समूह का उद्योत प्रसारित होता है । श्रीवर्धमान देशना में कहा है कि:रूवं पिच्छंताणं, अइदुलहं जस्स होउ मा विग्धं । जो पिंडिऊण तेअं, कुणंति भामंडलं पिट्टे ॥ १ ॥
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भावार्थ:- भगवंत के रूप को देखनेवाले के लिये उसका अतिशय तेजस्वीपन होनेसे उसके सामने देखना अत्यन्त दुर्लभ हो जाता है इस लिये सर्व तेज का समूह एकत्रित होकर भगवंत के मस्तक के पीछे रहता है कि जिससे भगवंत के रूप को देखनेवाले सुखपूर्वक भगवंत की ओर देख सकते हैं ।