________________
: १० :
श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
होती है तथा वह वाणी एक योजन के समवसरण में स्थित सर्व प्राणियों को एक ही प्रकारसे सुनाई देती है । यद्यपि भगवंत तो एक ही भाषा में उपदेश करते हैं परन्तु वर्षा के सदृश वह भाषा भिन्न भिन्न जीवों का आश्रय पाकर उन उन जीवों की भाषा के रूप में हो जाती है । इस विषय में कहा है कि:
देवा देवीं नरा नारीं, शबराश्चापि शाबरीम् । तिर्यञ्चोऽपि हि तैरवी, मेनिरे भगवद्गिरम् ॥१॥
भावार्थ:- भगवान की वाणी को देवता दैवी भाषा, मनुष्य मानुषी भाषा, भील लोग अपनी भाषा और तिर्यंच भी अपनी (पशु पक्षी की ) भाषा में बोला जाता है ऐसा मानते हैं ।
इस प्रकार के भुवनाद्भुत अतिशय बिना एक ही काल में एक ही प्रकार अनेक प्राणियों का उपकार होना अशक्य है । इस विषय में एक भील का दृष्टान्त प्रसिद्ध है कि:
सरः शरस्वरार्थेन, भिल्लेन युगपद्यथा । सरो नत्थीति वाक्येन, प्रियास्तिस्रोऽपि बोधिताः ॥
भावार्थ:- सरोवर, बाण और सुमधुर कंठ इन तीनों अर्थों को एक साथ कहने की इच्छावाले किसी भीलने