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व्याख्यान १:
(२) तीर्थकर का श्वासोश्वास कमलपरिमल तुल्य सुगन्धित है।
(३) जिनेश्वर का मांस और रुधिर गाय के दूध के सदृश उज्वल (श्वेत ) होता है । तथा
(४) भगवान का आहार और निहार चर्मचक्षुवाले प्राणियों ( मनुष्यादिक ) के लिये अदृश्य होता है, परन्तु
अवधि आदि ज्ञानवाले देख सकते हैं । ये चार अतिशय . भगवान में जन्म से ही उत्पन्न होते हैं।
ज्ञानावरणीयादिक चार घातिकर्मों के क्षय से ११ अतिशय उत्पन्न होते हैं जो इस प्रकार है:- .
(१) भगवान के समवसरण की भूमि केवल एक योजन के विस्तार की होती है तिसपर भी इस भूमि में करोड़ो देवतागण, मनुष्य और तिर्यंच का समावेश हो जाता है, और परस्पर निष्संकोच होकर सुख से रहते हैं।
(२) भगवान द्वारा देशना में कही पेंतीश गुणों से युक्त अर्धमागधी भाषा देवताओं, मनुष्यों और तियंचों अपनी भाषा में समझने से धर्म का अवबोध करनेवाली
१ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, और अन्तराय ये चार घातिकर्म है । इनके क्षय से प्राणी को केवलज्ञानादि प्रगट होते हैं।