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तेतीस आशातनाएं
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२५. दीक्षा ज्येष्ठ द्वारा कथा (प्रवचन) करने पर "ऐसा बोलना चाहिए" (इस प्रकार सुधार करना चाहिए) आदि कहना।
२६. रत्नाधिक द्वारा कथा करते समय (बीच में) बोलना कि "आपको स्मरण नहीं आ रहा है" (आप भूल रहे हैं) - इस प्रकार के वाक्य कहना।
२७. गुरु के व्याख्यान से प्रसन्न नहीं होना। .. २८. व्याख्यान समय में (किसी बहाने से) परिषद् को विसर्जित कर देना, २९. प्रवचन समय में भिक्षादि का कारण बताकर बाधा उपस्थित करना, ३०. रत्नाधिक के कथा करते समय परिषद् के उठने, भिन्न होने या बिखरने के पूर्व ही उसी कथा (गुरु द्वारा कही हुई) को दो या तीन बार कहना। .
३१. रानिक साधु के शय्या-संस्तारक का (प्रमादवश) पैर से स्पर्श हो जाने पर अनुनय विनय - क्षमायाचना किए बिना चला जाना। .
३२. दीक्षा ज्येष्ठ के शय्या-संस्तारक पर शैक्ष का खड़ा होना, बैठना या सोना तथा ... ३३. शैक्ष द्वारा रात्निक से ऊँचे या समान आसन पर खड़े होना या बैठना - ये उन स्थविर भगवंतों ने तेतीस आशातनाएँ प्ररूपित की हैं। ..यहाँ तीसरी दशा परिसमाप्त होती है। ___ विवेचन - साधु के जीवन में गुरुजन, श्रमण पर्याय में ज्येष्ठ पूज्यजनों के प्रति मानसिक, वाचिक और कायिक रूप में विनय होना अत्यंत आवश्यक है। "विणयमूलो धम्मो" - धर्म का मूल विनय है। यह शास्त्रोक्ति इसी बात का परिचायक है। “विशेषेणे नयः विनयः" के अनुसार इसका अर्थ अत्यंत विनीत, विनम्र रहना है। जीवन में विनम्रता तभी आती है जब सदाचरण के प्रति निष्ठा, निरभिमानिता, मृदुता, ऋजुता आदि गुण हों। .
बौद्ध धर्म में विनय शब्द सीधे - भिक्षु आचार के रूप में प्रयुक्त है। भिक्षु का गमनागमन, रहन-सहन, भोजन, भिक्षाचर्या इत्यादि सभी आचार विषयक क्रियाकलापों को विनय कहा जाता है।
विनयपिटक, सुत्तपिटक एवं अभिधम्मपिटक - बौद्ध धर्म के मूल ग्रंथ हैं। विनयपिटक आचार शास्त्र है। जिस प्रकार आचारांग सूत्र में साधु के आचार या चर्या का विशद विवेचन है, उसी प्रकार विनयपिटक में भिक्षुओं के आचार का विस्तृत वर्णन है।
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