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( ३८ )
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परस्पर भेद का नियामक कोई पदार्थ मानना अर्थात् जो अपने-अपने आश्रयीभूत द्रव्य को में या भिन्न रूप में समझावे वहीं 'विशेष' है । फलतः अनन्त है ।
जा सकता । अतः निरवयव द्रव्यों में पड़ेगा । इसी पदार्थ का नाम 'विशेष' है अपने से भिन्न सभी वस्तुओं से 'विशेष' रूप यह प्रत्येक निरवय द्रव्य में अलग अलग है किन्तु इस प्रसङ्ग में यह समझना है, दूसरे परमाणु में दूसरा विशेष है । अतः एक परमाणु से फलतः दोनों परमाणुओं में रहनेवाले दोनों विशेषों के परस्पर परस्पर भेद के प्रयोजक हैं। किन्तु इन दोनों विशेषों ही कौन नियामक है ? इस प्रसङ्ग में वैशेषिकों का कहना है कि ये विशेष 'स्वतः व्यावृत्त' इनमें परस्पर भेद के लिए किसी दूसरे नियामक की आवश्यकता नहीं है ।
शेष रहता है कि एक परमाणु में एक विशेष दूसरा परमाणु भिन्न है । भेद ही दोनों परमाणु में परस्पर भेद है ? इसका
इस 'स्वतोव्यावृत्ति' वाली दुर्बलता के कारण ही नव्यवैशिषकों ने 'विशेष' पदार्थ को अस्वीकार कर दिया है। उन लोगों का कहना है कि अगर परमाणु प्रभृति निरवयव द्रव्यों में रहनेवाले विशेषों को स्वतः व्यावृत्त मानते हैं, तो फिर परमाणुप्रभृति सभी निरवयव द्रव्यों को ही स्वतोव्यावृत्त क्यों नहीं मान लेते ? इसमें क्या लाभ है कि निरवय पदार्थों में परस्पर भेद के लिए उनमें स्वतोव्यावृत्तस्वभाववाले विशेषों की कल्पना की जाय ?
समवाय
समवाय नाम का एक प्रष्ठ पदार्थ भी महर्षि ने माना है । संयोग की तरह समवाय भी सम्बन्ध रूप है, क्योंकि यह भी विशेष्यविशेषणभाव का नियामक है । संयोग सम्बन्ध से समवाय सम्बन्ध में यह अन्तर है कि यह अपने आधार और आधेय इन दोनों में से एक के विनष्ट होने तक बना रहता है। संयोग में यह बात नहीं है । यह अपने आधार और आधेय दोनों के बने रहने पर भी विनष्ट हो जाता है। आधार या आधेय के सत्ता पर्यन्त समवाय का रहना ही वस्तुतः समवाय की नित्यता है । यद्यपि आकाशादि की तरह समवाय की नित्यता का भी उपपादन किया गया है !
विशेष्यविशेषणभाव का नियामक ही सम्बन्ध है । 'घटवद्भूतलम्' इत्यादि स्थल में घटका संयोग भूतल में है, अतः घट विशेषण है । एवं भूतल विशेष्य इसलिए है कि भूतलानुयोगिक संयोग घट में है । इसी प्रकार महर्षि कणाद ने समवाय का लक्षण करते हुए लिखा है कि 'इहेदमिति यतः कार्यकारणयोः सम्बन्धः स समवाय:' ( ७-२-२६ )
'इह कुण्डे दधि', 'इह कुण्डे वदराणि' इत्यादि प्रतीतियों में जिस प्रकार कुण्ड और दही एवं कुण्ड और बेर इन विशेष्य और विशेषणों को छोड़कर दोनों के संयोग सम्बन्ध भी विषय होते हैं; उसी प्रकार 'इह तन्तुषु पट: ' ' इह वीरणेषु कटः', 'इह द्रव्ये द्रव्य गुणकर्माणि', 'इह गवि गोत्वम्', 'इहात्मनि ज्ञानम्, 'इहाकाशे शब्द:', इत्यादि प्रतीतियों में भी तन्तु आधारों और पट प्रभृति आधेयो से अतिरिक्त कोई सम्बन्ध अवश्य ही भासित होता है । क्योंकि कोई भी विशिष्टबुद्धि विशेष्य और विशेषण के सम्बन्ध के बिना
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