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कर्म सभी प्रकार के चलने को या गतियों को 'कर्म' कहते हैं। ऊपर की तरफ उछालने की क्रिया को उत्क्षेपण एवं निचे की तरफ गिराने की क्रिया को अपक्षेपण' कहते हैं। समेटने की क्रिया को 'आकुञ्चन', और सामने वाहर की तरफ फैलाने की क्रिया को प्रसारण कहते हैं। शेष सभी क्रियाओं का 'गमन' कहते हैं । क्रियाओं का ऐसा विशद एवं सूक्ष्म वर्णन और किसी दर्शन में नहीं है । उसे इस मूल ग्रन्थ में देखा जा सकता है ।
सामान्य सभी व्यक्तियों के कुछ असाधारण धर्म होते हैं, जो उसी व्यक्ति में रहते हैं। इसके द्वारा ही जगत् के और सभी वस्तुओं से उस व्यक्ति को अलग रूप में समझा जाता है । इसी प्रकार कुछ ऐसे भी धर्म हैं जिनके कारण पदार्थ व्यक्तिशः भिन्न होते हुए भी एक आकार की प्रतीति के विषय होते हैं। जैसे सभी घट-व्यक्तियाँ अलग-अलग हैं । किन्तु 'अयं घटः' इस एक ही प्रकार से सब की प्रतीति होती है। विभिन्न व्यक्तियों की यह एक आकार की प्रतीति का कोई प्रयोजक अवश्य है । उस प्रयोजक को ही 'सामान्य' कहते हैं। अतः जो समान आकृत्यादिवाले विभिन्न व्यक्तियों में एक आकार की प्रतीति
का कारण हो वहीं 'सामान्य' है । इसे जाति भी कहते हैं। . बौद्धों का इस प्रसङ्ग में कहना है कि कोई भी व्यक्ति केवल अपने से भिन्न और सभी व्यक्तियों से विभिन्न रूप में ही प्रतीति होती है। अतः घटव्यक्ति में घंटों से भिन्न पटादि सभी व्यक्तियों का जो भेद है, वही विभिन्न घटों में “यह घट है" इस प्रकार की प्रतीति से भासित होता है, क्योंकि सभी घटों में घट से भिन्न और सभी पदार्थों का भेद समान रूप से विद्यमान है। इस समान विषयक प्रतीति का सम्पादक है यह तद्भिन्नभिन्नत्व या अपोह, इससे ही उक्त विभिन्न व्यक्तियों में समान आकार की प्रतीतियों का सम्पादन होता है। इसके लिए अलग जाति का नाम के भाव पदार्थ की कल्पना अनावश्यक है।
विशेष ____ 'विशेष' नाम का भी एक पदार्थ वैशेषिक लोग मानते हैं। इसे केवल वैशेषिक लोग ही मानते हैं। इसको मानने में वे इस युक्ति का प्रयोग करते हैं कि जिस प्रकार घट पटादि दृश्य पदार्थों में परस्पर भेद मानते हैं उसी प्रकार उनके उत्पादक परमाणुओं में और आकाशकालादि विभु पदार्थों में भी भेद मानना होगा। किन्तु घट पटादि सावयव पदार्थों में परस्पर भेद के नियामक उनके अवयवों के भेद हैं। अर्थात् घट पट से भिन्न इसलिए हैं कि घट के उत्पादक कपाल और पट के उत्पादक तन्तु परस्पर भिन्न हैं। जिनके उत्पादक अवयव परस्पर भिन्न जाति के होते हैं, वे सभी द्रव्य भी परस्पर भिन्न जाति के ही होते हैं। किन्तु निरवयव परमाणु और आकाशादि के तो अवयव नहीं हैं। अवयवों के भेद से उसमें परस्पर भेद का नियम नहीं किया
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