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कुमारसंभव
पुरो विलग्नैर्हर दृष्टिः पातैः सुवर्णसूत्रैरिवकृष्यमाणः। 7/50 मानो आगे पड़ती हुई शिवजी की चितवन की सोने की डोरियाँ उसे खींचती ले गई हों। ह्रीमान भूद् भूमिधरो हरेण त्रैलोक्यवन्द्येन कृत प्रणामः।। 7/54 शंकर जी ने जब पहले हिमालय को प्रणाम किया, तो वह लाज से गड़ गया। उरु मूल नख मार्गराजिभिस्तत्क्षणं हृत विलोचनो हरः।। 8/87 वायु के झोंके से कपड़ा हट जाने से, पार्वती की नंगी जाँघों पर जो नखों के चिह्नों की पाँत दिखाई दे रही थी, उसे शिवजी एकटक होकर देख रहे थे।
अनिल 1. अनिल :-पुं० [अनिति जीवत्यनेन । अन+इलच्] पवन, वायु।
न वाति वायुस्तत्यार्वे तालवृन्तानिलाधिकम्। 2/35 पवन भी उसके पास पंखे के वायु से अधिक वेग से नहीं बहता। वीज्यते स हि संसुप्तः श्वास साधारणानिलैः।। 2/42 जब वह सोया करता है, उस समय वायु चँवर डुलाया करती हैं। मद्धोताः प्रत्यनिलाः विचेरुर्वन स्थलीमर्मरपत्रमोक्षाः।। 3/31 वे पवन से झड़े हुए सूखे पत्तों से मर्मर करती हुई वन की भूमि पर इधर-उधर दौड़ते फिर रहे थे। गत एव न ते निवर्तते स सखा दीप इवानिला हतः।। 4/30 हे वसन्त ! देखो तुम्हारा मित्र पवन के झोंके से बुझे हुए दीपक के समान जाकर अब लौटता ही नहीं है। निनाय सात्यन्त हिमोत्किरानिलाः सहस्य रात्रीरुद्वास तत्परा। 5/26 पूस की जिन रातों में वहाँ का सरसराता हुआ पवन चारों ओर हिम ही हिम बिखेरता चलता था। आच चाम सलवंग केसरश्चाटुकार इव दक्षिणानिलः।। 8/25 लौंग के फूलों की केसर उड़ाने वाला दक्षिण का वायु, संभोग से थकी हई पार्वती जी की थकावट उसी प्रकार दूर कर रहा था, जैसे कोई मीठी-मीठी बातें
करके, किसी थके हुए का मन बहला रहा हो। 2. पवन :-पुं० [पुनातीति, पू + 'बहुलमन्यत्रपीति' यच्] वायु।
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