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कालिदास पर्याय कोश
भाव साध्वसपरिग्रहाद्भूत्कामोदाहदमनोहरं वपुः। 8/1 इनके इस प्रेम और झिझक से भरे सुन्दर शरीर को ही देख-देखकर महादेव जी
इन पर लट्ट हुए जा रहे थे। 5. रूप :-[रूप्+क, भावे अच् वा] सौन्दर्य, लावण्य, लालित्य।
इयेष सा कर्तुमबन्ध्य रूपतां समाधिमास्थाय तपोभिरात्मनः। 5/2 बस उन्होंने ठान लिया कि जिसे मैं रूप से नहीं रिझा सकी, उसे अब सच्चे मन से तपस्या करके पाऊँगी। अस्मिन्द्वये रूपविधान यत्नः पत्युः प्रजानां विफलोऽभविष्यत्। 7/66 ब्रह्माजी ने इन दोनों का रूप गढ़ने में जो परिश्रम किया, वह सब अकारथ ही
था। 6. ललित :-[लल्+क्त] प्रिय, सुन्दर, मनोहर, प्रांजल।
शैलात्मज पितुरुच्छिरसोऽभिलाषं व्यर्थं समर्थ्य ललितं वपुरात्मनश्च।3/75
मेरे ऊँचे सिर वाले पिता का मनोरथ और मेरी सुन्दरता दोनों अकारथ हो गईं। 7. लावण्य :- [लवण+ष्यच्] सौन्दर्य, सलोनापन, मनोहरता।
पुपोष लावण्य मयान्विशेषाज्योत्स्नान्तरणीव कलान्तराणि। 1/25 जैसे चाँदनी के बढ़ने के साथ-साथ चन्द्रमा की और सभी कलाएँ बढ़ने लगती है. वैसे ही ज्यों-ज्यों पार्वती जी बढ़ने लगीं, त्यों-त्यों उनके सुन्दर अंग भी सुडौल होकर बढ़ने लगे। कामप्यभिख्यां स्फुरितैरपुष्पदासन्नलावण्यफलोऽधरोष्ठः17/18 जिसकी सुन्दरता बस फलने ही वाली थी, वह ओंठ जब फड़कता था, उस
समय की उसकी शोभा कहीं नहीं जा सकती। 9. शोभा :-[शुभ्+अ+टाप्] वैभव, सौन्दर्य, लालित्य, चारुता, लावण्य।
भूतार्थ शोभाह्रिय माणनेत्रः पुसाधने संनिहितेऽपिनार्यः। 7/13 सिंगार की सब वस्तुएँ पास में होने पर भी वे सब पार्वती जी की स्वाभाविक शोभा पर इतनी लट्ट हो गईं। शरीर मात्रं विकृतिं प्रपेदे तथैव तस्थुः फणरत्नशोभाः। 7/34 उनके शरीर के बहुत से अंगों में जो साँप लिपटे हुए थे, उनके फणों पर जो मणि थे, वे ज्यों के त्यों चमकते रह गए। परस्परेण स्पृहणीय शोभं न चेदिरं द्वन्द्व मयोजयिष्यत्। 7/61
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