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कालिदास पर्याय कोश
प्रीति
1. प्रीति :-स्त्री० [प्रो+क्तिन्] प्रसन्नता, आनन्द, खुशी, प्रेम, स्नेह, आदर ।
कुमारमुखं तु प्रतिपद्य लोला द्विसंश्रया प्रीतिमवापलक्ष्मीः। 1/43 जब से वे चन्द्रमा और कमल दोनों के गुण वाले पार्वती जी के मुख में आ बसीं, तब से उन्हें चन्द्रमा और कमल दोनों का आनन्द एक साथ मिलने लगा। भुवना लोकन प्रीतिः स्वर्गिभिर्नानुभूयते। 2/45 पहले देवता लोग इस लोक से उस लोक में आनन्द से घूमते-फिरते थे। या नः प्रीतिर्विरूपाक्ष त्वदनुध्यानसंभवा। 6/21 आपने हमको जो स्मरण किया है, उससे हमारे मन में आपके लिए जो प्रेम उत्पन्न हुआ है। स प्रीतियोगाद्विकसन्मुखीश्रीर्जामातुरग्रसरतामुपेत्य। 7/55 इस सुन्दर सम्बन्ध से हिमालय बड़े प्रसन्न थे। वे अपने जमाता को उस मार्ग से
ले गए। 2. प्रसन्न :-[प्र+सद्+क्त] पवित्र, खुश, आनंदित, दयालु, अनुग्रहशील।
अपि प्रसन्नं हरिणेषु ते मनः करस्थदर्भप्रणयापहारिषु। 5/35 आपके हाथ से प्रेम से कुशा छीनकर खाने वाले इन हरिणों में तो आपका मन बहला रहता है। प्रसन्नचेतः सलिलः शिवऽभूत्संसृज्य मानः शरदेव लोकः। 7/74 जैसे शरद के आने पर लोग प्रसन्न हो जाते हैं, वैसे ही शंकर जी का मन जल
के समान निर्मल हो गया। 3. सुख :-वि० [सुख्+अच्] प्रसन्न, आनंदित, हर्षपूर्ण, खुश, मधुर।
शरीरिणां स्थावरजंगमानां सुखाय तज्जन्म दिनं बभूव। 1/23 उनके जन्म के दिन चर-अचर सभी उनके जन्म से प्रसन्न हो उठे थे। उपलब्धसुखस्तदा स्मरं वपुषा स्वेन नियोजयिष्यति। 4/42 प्रसन्न होकर महादेवजी कामदेव को अपना सहायक समझकर उसे पहले जैसा शरीर दे देंगे। इत्योषधि प्रस्थविलासिनीनां शृण्वन्कथाः श्रोत्रसुखास्त्रिनेत्रः। 7/69
औषधिप्रस्थ की स्त्रियों की ऐसी मीठी-मीठी बातें सुनते हुए, महादेवजी। इत्यभौममनुभूय शंकरः पार्थिवं च दयितासखः सुखम्। 8/28
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