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कालिदास पर्याय कोश
वरेषु यद्वालमृगाक्षि मृग्यते तदास्ति किं व्यस्मपि त्रिलोचने । 5/72 मृग के छौने की आँख जैसी आँख वाली पार्वती ! वर में जो गुण खोजे जाते हैं, उनमें से एक भी तो महादेव जी में नही हैं।
आविशद्भिरुटजाङ्गणं मृगैर्मूलसेकसरसैश्च वृक्षकैः 18 / 38
पर्ण कुटियों के आँगन में आते हए हिरणों से, खींचे हुए जड़ वाले हरे-भरे पौधों से ।
2. हरिण : - [ हृ+इनन् ] मृग, बारहसिंगा, सफेद रंग, हंस ।
लतासु तन्वीषु विलास चेष्टितं विलोलदृष्टं हरिणाङ्गनासुच । 5/13 उन्होंने अपना हाव-भाव कोमल लताओं को, और अपनी चंचल चितवन हरिणियों को धरोहर बनाकर दे दी हो। अरण्यबीजाञ्जलिदानलालितास्था च तस्यां हरिणा विशश्वसुः । 5/15 वहाँ के जिन हरिणों को उन्होने अपने हाथ से तिन्नी के दाने खिला-खिला कर पाला-पोसा था, वे इतने परच गये थे।
अति प्रसन्नं हरिणेषु ते मनः करस्थदर्भप्रण यापहारिषु । 5/35
आपके हाथ से प्रेम से कुशा छीनकर खाने वाले इन हरिणों में, तो आपका मन बहला रहता है ।
मेरु
1. मेरु : - [ मि+रु ] उपाख्यानों में वर्णिक एक पर्वत का नाम ।
यं सर्व शैलाः परिकल्प्य वत्सं मेरौ स्थिते दोग्धरिदोहदक्षे । 1/2 सब पर्वतों ने मिलकर इसे बछड़ा बनाया और दूहने में चतुर मेरु पर्वत को
ग्वाला बनाकर ।
स मानसीं मेरुसखः पितॄणां कन्यां कुलस्य स्थितये स्थितिज्ञः । 1/18 सुमेरु के मित्र और मर्यादा जानने वाले हिमालय ने अपना वंश चलाने के लिए उस कन्या से, जो पितरों के मन से उत्पन्न हुई थी व जो हिमालय के समान ही ऊँचे कुल और शीलवाली थी ।
उत्पाट्य मेरुशृंगाणि क्षुण्णानि हरितां खुरैः । 2/43
सूर्य के घोड़ों से ढीली पड़ी हुई मेरु की चोटियों का उखाड - उखाड़कर । मेरोमेत्य मरुदाशुगोक्षकः पार्वतीस्तनपुरस्कृतान्कृती । 8/22
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