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मेघदूतम्
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जालोद्गीर्णैरुपचितवपुः केशसंस्कारधूपै
बन्धुप्रीत्या भवनशिखि भिर्वृत्त नृत्योपहारः । पू० मे० 36
वहाँ कि स्त्रियों के बालों को सुगंधित करके, अगरू की धूप का जो धुआँ झरोखों से निकलता होगा, उससे तुम्हारा शरीर बढ़ेगा और तुम्हें अपना सगा समझकर, वहाँ के मोर भी नाच-नाचकर तुम्हारा सत्कार करेंगे। 3. जालमार्ग - [जाल + मार्गः] गवाक्ष, खिड़की ।
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जालमार्गैर्धूमोद्गारानुकृतिनिपुणा जर्जरा निष्पतन्ति । उ० मे० 8
वे धुएँ का रूप बनाने में निपुण बादल, डर के मारे झट से झरोखों की जालियों से छितरा - छितरा कर निकल भागते हैं ।
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पादादिन्दोरमृतशिशिराञ्जालमार्गं प्रविष्टान् । उ० मे० 32
जालियों में से छनकर जो चंद्रमा की किरणें आ रही होंगी उन्हें वह समझती होगी कि पहले सुख के दिनों में अमृत के समान ठंडी थीं ।
वातायन
[वा + क् + अयनम् ] खिड़की, झरोखा |
तामुन्निद्रामवनिशयनां सौधवातायनस्थः । उ० मे० 28
मेरे भवन में झरोखों पर बैठकर उसे देखना, क्योंकि उस समय वह तुम्हें धरती पर उनींदी सी पड़ी मिलेगी।
स त्वं रात्रौ जलद शयनासन्न वातायनस्थः । उ० मे० 29
ज्योति
1. अग्नि - [ अंगति उर्ध्वं गच्छति - अङ्ग + नि नलोपश्च] आग। आसारेण त्वमपि शमयेस्तस्य नैदाघमग्निं । पू० मे० 19
हे मेघ ! इसलिये तुम रात में उसके पलंग के पास वाली खिड़की पर बैठकर थोड़ी देर परखना ।
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तुम भी जल बरसाकर उसके जंगलों में लगी हुई गर्मी की आग बुझा देना । बाधेतोल्काक्षपित चामरीबालभारो दवाग्निः । पू० मे० 57
जब जंगल में आग लग जाय और उसके उड़ते हुए अंगारे, सुरागाय के लंबे-लंबे रोएँ जलाने लगें ।
उपप्लव - [ उप् + प्लु + अप्] विपत्ति, दुःख, आग ।