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कालिदास पर्याय कोश न हन्त्यदूरेऽपि गजान्मृगेश्वरो विलोलजिह्वश्चलितागकेसरः। 1/14 हाथियों के पास होने पर भी सिंह उन्हें मार नहीं रहा है, अपनी जीभ से अपने
ओठ चाटता जा रहा है और हाँफने से इसके कंधे के बाल हिल रहे हैं। संफेनलालावृतवक्त्रसंपुटं विनिःसृतालोहित जिह्वमुन्मुखम्। 1/21 जगाली करने से जिनके मुंह से झाग निकल रही है और लार बह रही है, वे अपना मुँह खोलकर अपनी लाल-लाल जीभें बाहर निकाले हुए। जिह्वा - [ लिहन्ति अनया - लिह् + वन् नि०] जीभ । रविप्रभोद्भिन्नशिरोमणिप्रभो विलोलजिह्वाद्वयलीढमारुतः। 1/20 जिस प्यासे साँप की मणि सूर्य की चमक से और भी चमक उठी है, वह अपनी
लपलपाती हुई दोनों जीभों से पवन पीता जा रहा है। 3. तालु - [तरन्त्यनेन वर्णाः - तृ + उण, रस्य लः] तालु, जीभ।
मृगाः प्रचण्डातपतापिता भृशं तृषा महत्या परिशुष्कतालवः। 1/11 जलते हुए सूर्य की किरणों में झुलसे हुए जिन जंगली पशुओं की जीभ प्यास से बहुत सूख गई है।
तुषार 1. तुषार - [तुष् + आरक्] ठंडा, शीतल, ओस से युक्त।
पयोधराश्चन्दनपङ्क चर्चितास्तुषार गौरार्पितहारशेखराः। 1/6 स्त्रियों के हिम के समान उजले और अनूठे हार से सजे हुए चंदन पुते स्तन देखकर। विलीनपद्मः प्रपत्स्तुषारो हेमन्तकालः समुपागतऽयम्।4/1 यह पाला गिराती हुई हेमंत ऋतु आ गई है, जिसमें कमल दिखाई नहीं देते। मनोहरैश्चन्दनरागगौरैस्तुषारकुन्देन्दुनिभैश्च हारैः। 4/2 हिम कोई और चंद्रमा के समान उजले और कुंकुम के रंग में रंगे हुए मनोहर हार नहीं पहनती हैं। विनिपतिततुषारः क्रौञ्चनादोपगीत: प्रदिशतु हिमयुक्तस्त्वेष कालः सुखं वः। 4/19
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