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कुमारसंभव
जिसके मंत्रों से यज्ञ करके लोग स्वर्ग प्राप्त कर लेते हैं। वचस्यवसिरो तस्मिन्ससर्ज गिरमात्मभूः। 2/53 उनके कह चुकने पर ब्रह्माजी ऐसी मधुर वाणी बोले। क्रोधं प्रभो सं हरेति यावगिरः खे मरुतां चरन्ति। 3/72 यह देखते ही एक साथ सब देवता आकाश में चिल्ला उठे, हैं, हैं रोकिये-रोकिये अपने क्रोध को प्रभु। ईप्सितार्थ क्रियोदारं ते ऽभिनन्द्य गिरेर्वचः। 6/90
अपना काम पूरा हुआ देखकर सप्तऋषियों ने हिमालय की प्रशंसा की। 2. भारती :-स्त्री०[ [भरत+अण+ई] वाणी, वाच्य, वचन।
तमर्थमिव भारत्या सुतया योक्तुमर्हसि। 6/79 इसलिए आप शिवजी से अपनी पुत्री का वैसे ही अटूट सम्बन्ध कर दीजिए,
जैसे वाणी का अर्थ से हो गया है। 3. वाच :-[स्त्री०] [वच्+क्विप् दीर्घोऽसंप्रसारणं च] वचन, शब्द, पदावली।
यदुच्यते पार्वति पापवृत्तयेन रूपमित्यव्यभिचारितद्वचः। 5/36 हे पार्वती जी ! यह ठीक ही कहा जाता है, कि सुन्दरता पाप की ओर कभी नहीं झुकती। जयेति वाचा महिमानमस्य संवर्धयन्तौ हविषेव वह्निम्। 7/43 जैसे आग में घी डालने से उसकी लपट बढ़ जाती है, वैसे ही उनकी जय-जयकार करके उनकी महिमा और बढ़ा दी। अपि शयन सखीभ्यो दत्तवायं कथंचित्। 7/95 सखियों की चुटकियों का ज्यों-त्यों उत्तर देने वाली पार्वती जी भी। निर्विभुज्य दशनच्छदं ततो वाचि भतुरवधी रणापरा। 8/49 यह सुनकर महादेव जी की बात अनसुनी सी करके अपना ओठ बिचका लिया। पार्वतीमवचनाम सूयया प्रत्युपेत्य पुनराह सस्मितम्। 8/50 महादेवजी जी उन पार्वती के पास पहुँचे, जो चुप्पी साधकर रूठी हुई बैठी थी
और उनसे मुस्कुराते हुए कहने लगे। त्वं मया प्रिय सख समागता श्रोष्यतेव वचनानि पृष्ठतः। 8/59 जैसे मैं तुम्हारे पीछे आकर तुम लोगों की बात उस समय सुनता हूँ, जब तुम अपनी सखियों के साथ बैठकर बातें करती होती हो।
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