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कालिदास पर्याय कोश आसीनमासन्न शरीर पातस्त्रियम्बकं संयमिनं ददर्श। 3/44 कामदेव देखता क्या है, कि महादेव जी समाधि लगाए बैठे हुए हैं। ददृशे पुरुषाकृति क्षितौ हरकोपानल भस्म केवलम्। 4/3 वह देखती क्या है, कि महादेवजी के क्रोध से जली हुई पुरुष के आकार की एक राख की ढेर सामने पृथ्वी पर पड़ी हुई है। भवत्यनिष्टादपिनामदुःसहान्मनस्विनीनां प्रतिपतिरीदृशी। विचार मार्ग प्रहितेन चेतसान दृश्यते तच्च क्लेशादरित्वयि ।। 5/42 कभी-कभी ऐसा होता है कि अपने बैरी से बदला लेने के लिए भी मानिनी स्त्रियाँ कठोर तपस्या कर बैठती हैं, पर जहाँ तक मैं समझता हूँ, ऐसी भी कोई बात आपके साथ नहीं है। न च प्ररोहाभिमुखोऽपिदृश्यते मनोरथोऽस्याः शशिमौलिसंश्रयः। 5/60 महादेवजी को पाने की जो इनकी साध थी, उसमें कभी अंकुवे भी नहीं फूट
पाये।
एकैव सत्यामपि पुत्रपंक्तौ चिरस्य दृष्टेव मृतोत्थितेव। 7/4 यद्यपि हिमालय के बहुत से पुत्र थे, फिर भी उस समय हिमालय और मेना दोनों को पार्वती जी ऐसी प्राण से बढ़कर प्यारी लग रही थीं, मानो अभी जीकर उठी
हों।
3. लक्ष:-भ्वा० आ० [लक्षते लक्षित] देखना, दिखना।
इति द्विजातौ प्रतिकूलवादिनि प्रवेपमानाधर लक्ष्य कोपया। 5/74 उस ब्राह्मण की ऐसी उलटी-सीधी बातें सुनकर, उन्होंने भौंहे तान कर उस ब्रह्मचारी की ओर देखा। मन्दरान्तरित मूर्तिना निशा लक्ष्यते शशभृता सतारका। 8/59 उस समय मन्दराचल के पीछे छिपे हुए चन्द्रमा इस तारों वाली रात में ठीक ऐसे लगते हैं। लक्ष्यते द्विरद भोग दूषितं सप्रसादमिव मानसं सरः। 8/64 ऐसा दिख रहा है मानो हाथियों की जल क्रीड़ा से गैंदला मान सरोवर निर्मल हो
चला हो। 4. लोक :-पुं० [लोक्यते इति लोक+घञ्] देखना।
यमक्षरं क्षेत्रविदो विदुस्तमात्मानमात्मन्यवलोकयन्तम्। 3/50
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