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कुमारसंभव
वहाँ समाधि में बैठे हुए शंकरजी अपनी उस अविनाशी आत्म ज्योति को अपने भीतर देख रहे थे, जिसे ज्ञानी लोग जान पाते हैं ।
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व्यलोकयन्नुन्मिषितैस्तडिन्मयैमहातपः साक्ष्य इव स्थिताः क्षपाः । 5/2 वे अँधेरी रातें अपनी बिजली की आँखें खोल-खोलकर इस प्रकार उन्हें देखा करती थीं, मानो वे उनके कठोर तप की साक्षी हों ।
उक्षन्
1. उक्षन् :- पुं० [ उक्ष्+कनिन् ] बैल या साँड़ ।
विलोक्य वृद्धो क्षमधिष्ठितं त्वया महाजनः स्मेरमुखो भविष्यति । 5/70 बैल पर आपको बैठे देखकर नगर के भले मानुस तालियाँ बजावेंगे। तत्रावतीर्याच्युत दत्त हस्तः शरदद्धनाद्दीधितिमानि वोक्ष्णः । 7/70 वहाँ पहुँचने पर विष्णु जी ने हाथ का सहारा देकर महादेवजी को इस प्रकर बैल से उतार लिया, मानो शरद के उजले बादलों से सूर्य को उतार लिया हो । 2. ककुद :- पुं० [ ककु + दा+क] बैल, साँड़ ।
तुषार संघात शिलाः खुराग्रैः समुल्लिखन्दर्पकलः ककुद्नान। 1/56 नन्दी बैल जब अपने खुरों से हिम की चट्टानों को खूंदता हुआ डकर उठता था, तब नील गाएँ घबराकर उसे देखती रह जाती थीं ।
तत्र तत्र विजहार संपतन्न प्रमेयगतिना ककुद्मता । 8/21
वहाँ से बेरोकटोक चलने वाले नन्दी पर चढ़कर, विहार करने लगे ।
वे जहाँ-तहाँ घूम-घूम कर
3. गोपतिं :- पुं० [गवां रश्मीनां पतिः] बैल ।
स गोपतिं नन्दिभुजावलम्बी शार्दूल चर्मान्तरितोरुपृष्ठम्। 7/37
फिर नन्दी के हाथ का सहारा लेकर वे अपने उस लम्बे-चौड़े डील-डौल वाले बैल की पीठ पर चढ़े, जिस पर सिंह की खाल बिछी हुई थी ।
4. वृष :- पुं० [वर्षति सिञ्चति रेत इति । वृष सेचने+क । वर्षति कामान् इति वा] बैल |
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असंपदेस्तस्य वृषेण गच्छतः प्रभिन्नदिग्वारणवाहनो वृषा । 5/80
जिन्हें आप दरिद्र बताते हैं, वे जब अपने बैल पर चढ़कर चलने लगते हैं, तब मतवाले ऐरावत पर चढ़ने वाला इन्द्र ।