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कुमारसंभव
अपने सिर पर धरे हुए मणियों की किरणों से पार्वतीजी के ही चरण रंगा करेंगे। चन्द्रेव नित्यं प्रतिभिन्नमौलेश्चूड़ामणेः किं ग्रहणं हरस्य । 7/35
वह चन्द्रमा ही उनका चूड़ामणि बन गया था, इसलिए वे दूसरा चूड़ामणि लेकर करते ही क्या।
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3. मूर्ध्न :- पुं० [ मह्यत्यस्मिन्नाहते इति मूर्धा - मुह+कनि] मस्तक ।
भर्तुः प्रसादं प्रतिनिन्द्य मूर्ध्ना वक्तुं मिथः प्राक्रमतैवमेनम् । 3 / 2
उसने भी सिर झुकाकर इन्द्र की कृपा स्वीकार कर ली और उनसे गुपचुप बातचीत करने लगा ।
मूर्ध्नि गंगाप्रपातेन धौत पादाम्भसा च वः ।। 6/57
एक तो सिर पर गंगा जी की धारा गिरने से, दूसरे आप लोगों के चरण की धावन पा लेने से ।
कम्पेन मूर्ध्नः शतपत्र योनिं वाचा हरिं वृत्रहण स्मितेन । 7 / 46
शिवजी ने ब्रह्मा जी की ओर सिर हिलाकर, विष्णुजी से कुशल मंगल पूछकर, इन्द्र की ओर मुस्कराकर ।
मूर्धान मालि क्षिति धारणोच्चमुच्चैस्तरं वक्ष्यति शैलराजः । 7/68 हे सखी, पर्वतेश्वर हिमालय बड़े भाग्यवान हैं। एक तो पृथ्वी धारण करने से उनका सिर वैसे ही ऊँचा था ।
वीक्षितेन परिवीक्ष्य पार्वती मूर्ध कम्पमयमुत्तरं ददौ । 8/6
बस अपनी आँखें ऊपर उठाकर और सिर घुमाकर यह जता देतीं, कि मैं आपकी सब बातें मानती हूँ ।
4. मौलि : - पुं० स्त्री० [ मूलस्यादूरे भवः । मूल + सुतङ्गमादित्वाद् इञ् ] सिर । तथाहि नृत्याभिनय क्रियाच्युतं विलिप्यते मौलिभिरम्बरौकसाम् । 5/79 इसलिए तो जब वे तांडव नृत्य करने लगते हैं, उस समय उनके शरीर से झड़ी हुई भस्म को देवता लोग बड़ी श्रद्धा से अपनी माथे पर चढ़ाते हैं । करोति पादावुपगम्य मौलिना विनिद्रमन्दरारजोरुणाङ्गुली। 5/8 इन्द्र भी उनके पैरों पर मस्तक नवाया करता है और फूले हुए कल्पवृक्ष के पराग से उनके पैरों की उँगलियाँ रंगा करता है।
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शीतलेन निरवापयत्क्षणं मौलिचन्द्रशकलेन शूलिनः । 8/18 महादेव जी के सिर पर बसे हुए चन्द्रमा पर ज्यों ही औंठ रखतीं, त्यों ही उन्हें ऐसी ठंडक मिलती कि उनकी सब पीड़ा जाती रहती ।