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कुमारसंभव
कपोल संसर्पि शिखः स तस्या मुहूर्त कर्णोत्पलतां प्रपेदे । 7/81
वह धुआँ उनके गालों के पास पहुँचकर कुछ क्षणों के लिए उनके कानों का कर्णफूल बन जाता था ।
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2. शृण्व :- कान ।
इत्योषधिप्रस्थ विलासिनीनां शृण्वन्कथाः श्रोत्र सुखास्त्रिनेत्र: । 7/69 औषधिप्रस्थ की स्त्रियों की ऐसी मीठी-मीठी बातें सुनते हुए शंकर जी । कर्म
1. कर्म : - [ कृ + मनिन् ] कृत्य, कार्य, कर्म ।
अप्य प्रसिद्धं यशसे हि पुंसामनन्यासधारणमेव कर्म | 3 / 19
संसार में ऐसा असाधारण काम करने से ही यश मिलता है, जिसे कोई दूसरा न कर सके ।
2. कार्य : - [ कृ + ण्यत् ] काम, मामला, बात, कर्तव्य ।
मनसा कार्य संसिद्धौ त्वरादिगुणरहसा । 2/63
अपने काम के लिए वेग से दौड़ने वाले मन में ।
अवैमि ते सारमतः खलु त्वां कार्ये गुरुण्यात्मसमनियोक्ष्ये । 3/13
मैं तुम्हारी शक्ति भली-भाँति जानता हूँ, इसीलिए मैं तुम्हें अपने जैसा मानकर इस बड़े काम में लगाना चाहता हूँ ।
जितेन्द्रिये शूलिनि पुष्पचापः स्वकार्य सिद्धिं पुनराशशंस | 3/57
तब उसके मन में जितेन्द्रिय महादेवजी को वश में करने की आशा फिर हरी हो उठी ।
ब्रूतये नात्र वः कार्य मनास्था बाह्य वस्तुषु । 6/63
इनमें से जिससे भी आपका काम बने उसे आज्ञा दीजिए, क्योंकि धन-सम्पत्ति आदि जितनी भी बाहरी वस्तुएँ हैं, वे तो आपकी सेवा के लिए तुच्छ हैं। मेने मेनापि तत्सर्वं पत्युः कार्यमभीप्सितम् ।। 6 / 86
मैना ने भी अपने पति की हाँ में हाँ मिलाकर सब बातें मान लीं ।
3. क्रिया :- [ कृ+श, रिङ् आदेशः, इयङ् ] कार्य, कर्म ।
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काष्ठागत स्नेहरसानुबिद्धं द्वन्द्वानि भावं क्रियया विवब्रुः 1 3 / 39 तब चर और अचरों की अत्यंत बढ़ी हुई सम्भोग की इच्छा उनमें दिखाई देने लगी ।