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कालिदास पर्याय कोश
कुद्धेऽपि पक्षच्छिदि वृत्रशत्राववेद नाज्ञं कुलिश क्षतानाम् । 1/20
जिसने पर्वतों के पंख काटने वाले इन्द्र के रुष्ट होने पर भी उनके वज्र की चोट अपने शरीर को नहीं लगने दी।
वृत्रस्य हन्तु कुलिशं कुण्ठिता श्रीव लक्ष्यते । 2 / 20
मारने वाला वज्र भी चमक खोकर कुण्ठित सा क्यों दिखाई दे रहा है।
सर्वं सखे त्वय्युपपन्न मे ददुभे ममास्त्रे कुलिशं भवांश्च । 3/12
हे मित्र ! तुम सब कुछ कर सकते हो, क्योंकि यों तुम और वज्र ये ही मेरे दो अस्त्र हैं ।
4. धनुष :- त्रि० [ धन्+उसि] धनुष, धनु ।
संमोहनं नाम च पुष्पधन्वा धनुष्यमोघं समधत्त बाणम् । 3/66 कामदेव ने भी सम्मोहन नाम का अचूक बाण अपने धनुष पर चढ़ा लिया। अलि पंक्तिरने कक्षस्त्वया गुणकृत्ये धनुषो नियोजिता । 4/15
जिन भौंरो की पाँतो की तुम अनेक बार अपने धनुष की डोरी बनाया करते थे । बिसतन्तु गुणस्य कारितुं धनुषः पेलवपुष्पपत्त्रिणः 14 / 29
तुम्हारे कमल की तन्तु से बनी हुई डोरी वाले फूलों के बाण वाले धनुष का लोहा मानते थे ।
अश्रु
1. अश्रु :- क्ली [ अश्नुते व्याप्नोति नेत्रमदर्शनाय - अश् + क्रुन् ] आँसू । तन्मातरं चाश्रुमुखीं दुहितृस्नेहविक्लवाम् । 6 / 92
मेना अपनी पुत्री के स्नेह में इतनी अधीर हो गई, कि उनकी आँखें डबडबा आईं।
2. अस्त्र :- [अस्+ष्ट्रन्] आँसू, नेत्र - जल ।
न वेद्मिस प्राथिर्त दुर्लभः कदा सखी भिरस्त्रोत्तर मीक्षितामिमाम् 15/67 जिस दुर्लभ वर को पाने के लिए इतनी साँसत भोग रही हैं, वह देखें कब हमारी सखी पर कृपा बरसाता है ।
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बबन्ध चास्त्रा कुल दृष्टि रस्याः स्थानान्तरे कल्प्रित संनिवेशम् । 7/25 आनन्द के मारे मेना की आँखों में आँसू भर आए, व उन्होंने पार्वती जी के हाथ में जहाँ कंगना बाँधना था, वहाँ न बाँधकर कहीं और बाँध दिया।