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कालिदास पर्याय कोश
कपालि वा स्यादथवेन्दु शेखरं न विश्व मूर्ते रवधार्यते वपुः। 5/78 गले में खोपड़ियों की माला पहने हुए हों या माथे पर चन्द्रमा सजाए हुए हों,
संसार मे जितने रूप दिखाई देते हैं, वे सब उन्ही के होते हैं। 2. भू :-स्त्री० [भवत्यस्यामिति, भू+अधिकरणे क्विप्] होना।
श्रुताप्सरोगी तिरपि क्षणेऽस्मिहरः प्रसंख्यानपरो बभूव। 3/40 इसी बीच अप्सराओं ने भी अपना नाच गाना आरम्भ कर दिया, पर महादेव जी टस के मस न हुए। अथ तेन निगृह्य विक्रियामभि शिप्तः फलमेतदन्वभूत्। 4/41 उन्होंने अपने मन को रोककर कामदेव को शाप दिया कि जाओ, तुम शिवजी के तीसरे नेत्र की अग्नि से जलकर राख बन जाओगे। उसी का यह सब फल है। सुता संबन्धविधिना भव विश्व गुरोर्गुरुः। 6/83 उनसे अपनी पुत्री का विवाह करके आप उन महादेव जी के भी बड़े बन जाइए। भवन्त्यव्यभिचारिण्यो भर्तुरिष्टे पतिव्रताः। 6/86 जो सती स्त्रियाँ हुआ करती हैं, वे किसी भी बात में पति से बाहर नहीं होती। आवर्जिताष्टापदकुंभतोयैः सतूर्यमेनां स्नपयां बभूवुः। 7/10 उस चौकी पर उन स्त्रियों ने उमा को बैठाया और गाते-बजाते हुए सोने के घड़ों के जल से पार्वती जी को नहला दिया। हरोपयाने त्वरिता बभूव स्त्रीणां प्रियालोक फलो हि वेशः। 7/22 महादेव जी से मिलने के लिए मचल उठीं, क्योंकि स्त्रियों का शृंगार तभी सफल होता है, जब पति उसे देखे। उमास्तनोद्भेदमनु प्रवृद्धो मनोरथो यः प्रथमं बभूव। 7/24 पार्वती जी के मन में जो जवानी आने के समय से ही शंकर जी को पाने की साध बराबर बढ़ रही थी, पूरी कर दी। प्रासाद मालासु भूवुरित्थं त्यक्तान्यकार्याणि विचेष्टितानि। 7/56 अपना-अपना सब कामकाज छोड़कर, अपने भवनों की छतों पर आ खड़ी हुईं। प्रसन्नचेतः सलिलः शिवोऽभूत्संसृज्य मानः शरदेवलोकः। 7/7 जैसे शरद के आने पर लोग प्रसन्न हो जाते हैं, वैसे ही पार्वती को देखकर शंकर जी का मन जल के समान निर्मल हो गया। वधूमुखं क्लान्त यवावतंसमाचार धूम ग्रहणाद्बभूव। 7/82 उस हवन के गरम धुंए से पार्वती जी के कानों पर धरे हुए जवे धुंधले पड़ गए।
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