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कुमारसंभव
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गुरुः प्रगल्भेऽपि व्यस्यतोऽस्यास्तस्थौ निवृत्तान्य वराभिलाषः। 1/51 यद्यपि पार्वतीजी सयानी होती चली जा रही थीं, पर नारद जी के वचन सुनकर हिमालय इतने निश्चित हो गए, कि उन्होंने दूसरा वर खोजने की चिन्ता ही छोड़ दी। अभिलाषमुदीरितेन्द्रियः स्वसुतायमकरोत्प्रजापतिः। 4/41 ब्रह्माजी ने सष्टि करते समय जब सरस्वती को उत्पन्न किया था, उस समय कामदेव ने उनके मन में ऐसा पाप भर दिया कि वे सरस्वती के रूप पर मोहित
हो गए और उससे संभोग करने की इच्छा करने लगे। 2. आकांक्षा :-अभिलाषा, मनोरथ।
केनाभ्य सूया पदकाक्षिणा ते नितान्त दीपँर्जनिता तपोभिः। 3/4 कहिए तो ऐसा कौन पुरुष उत्पन्न हो गया, जिसने बहुत बड़ी-बड़ी तपस्याएँ करके आपके मन में ईर्ष्या जगा दी है। यदाफलं पूर्वतपः समाधिना न तावता नभ्यममस्त कांक्षितम्। 5/18 पार्वती जी ने जब देखा, कि इन प्रारंभिक नियमों से काम नहीं सधता। तदर्ध भागेन लभस्व कांक्षितं वरं तमिच्छामि च साधु वेदितुम्। 5/50 उसका आधा भाग आप ले लीजिए और आपकी जो भी साधे हों, सब उनसे पूरा
कर लीजिए; पर हाँ इतना तो कम से कम बता दीजिए कि वह है कौन? 3. ईष्ट :-वांक्षित, आकांक्षा, इच्छा।
स एव वेषः परिणेतुरिष्टं भावान्तरं तस्य विभोः प्रपेदे। 7/31
उन्होंने अपनी शक्ति से, अपने ही वेश को विवाह के योग्य बना लिया। 4. काम :-पुं० [काम्यते असौ, कर्मणि घञ्] इच्छा, वासना।
स्वयं विधाता तपसः फलानां केनापि कामेन तपश्चार। 11/57 सब तपस्याओं का स्वयं फल देने वाले शिवजी ने न जाने किस फल की इच्छा से तप करना प्रारंभ कर दिया। संपत्स्यते वः कामोऽयं कालः कश्चित्प्रतीक्ष्यताम्। 2/54 वे बोले-आप लोगों की इच्छा तो पूरी हो जाएगी, पर आप लोगों को थोड़े दिन
और बाट जोहनी पड़ेगी। 5. मनोरथ :-पुं० [मनसः रथ इव, मन एव रथोऽत्रेति वा] इच्छा।
तथा समक्षं दहता मनोभवं पिनाकिना भग्न मनोरथा सती।। 5/1
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