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कालिदास पर्याय कोश
अलक्तकाङ्कानि पदानि पादयो विकीर्ण केशांसु परेत भूमिषु। 5/68 अपने महावर से रँगे पैरों को उस श्मशान की भूमि में कैसे रक्खेंगी, जहाँ इधर-उधर भूत-प्रेतों के बाल बिखरे पड़े होंगे। बद्धं न संभावित एव तावत्करेण रुद्धोऽपि च केशपाशः। 7/57 वह उसे अपने हाथ से पकड़े हुए ही चल दी, उसे केश बाँधने की सुध न रही। अङ्गुलीभिरिव केशसंचयं संनिग्रहय तिमिरं मरीचिभिः। 8/63 मानो वह अपनी किरण रूपी उँगलियों से रात रूपी नायिका के मुंह पर फैले हुए अंधेरे रूपी बालों को हटाकर। मूर्धना-पुं० [मूर्छिन् जातः। जन्+ड ] केश, बाल। विललाप विकिर्ण मूर्धजा समदुःखामिव कुर्वती स्थलीम्। 4/4 बाल बिखेरकर ऐसी बिलख-बिलखकर रोने लगी, मानो समूची वन भूमि ही
उसके साथ-साथ रो रही हो। 5. शिरोरुह-पुं० [शिरसि+रोहतीति। रुह+क] केश, बाल।
यथा प्रसिद्धैर्मधुरं शिरोरुहेर्जटाभिरप्येवम भूत्तदाननम्। 5/9 जटा रख लेने पर भी उनका मुख वैसे ही प्यारा लगता था, जैसे पहले सजी हुई चोटियों से लगता था।
अलक्त
1. अलक्त-पुं० [न रक्तोऽस्मात । रस्य लत्वम्। अलक्तः स्वार्थेकन्] लाल रंग की
लाख, महावर। चिरोज्झितालक्तक पाटलेन ते तुलां यदारोहति दन्तवाससा। 5/34 आपके उन आठों से होड़ करती होंगी, जो बहुत दिनोंसे महावर से न रंगे जाने
पर भी लाल हैं। 2. दवराग :-महावर।
प्रसाधिकाऽऽलम्बितमग्रपादमाक्षिप्य काचिद्वरागमेव। 7/58
एक स्त्री अपने पैर में महावर लगवा रही थी, कि उसे अधूरा छोड़कर ही। 3. चरण राग :-महावर।
निर्मलेऽपि शयनं निशात्यये नोज्भिक्तं चरणरागलाञ्छितम्। 8/89 उस चादर पर कहीं-कहीं पाँव के महावर की छाप भी जहाँ-तहां लगी हुई थी। दिन निकल आने पर भी उन्होंने पलंग छोड़ने का नाम न लिया।
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