Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्नाभृते
[ १. १३ जे पि पडंति च तेसि जाणंता लज्जगारवभयेण। तेसि पि णत्थि बोहि पावं अणुमोअमाणाणं ॥१३॥ येपि पतन्ति च तेषां जानन्तो लज्जा-गर्व भयेन । तेषामपि नास्ति बोधिः पापमनुमन्यमानानाम् ।।१३।।
(जे पि पडंति च तेसि ) ये सम्यग्दर्शनादभ्रष्टा अपि पुरुषाः तेस तेषपरित्यक्तजिनमुद्राणां मयूरपिच्छ-शौचोपकरण-ज्ञानोपकरणरहितानां पादे कायघरयुगले पतन्ति नमस्कारं कुर्वन्ति पूर्वमुद्राधरा इति । ( जाणंता) विदन्तोऽपि जिनहाविराधका एते इत्यवगच्छन्तोऽपि । (लज्जा-गारव-भयेण) लज्जया त्रपया, गारवेण रसद्धि-सातगण, भयेनायं राजमान्योऽस्माकं कमप्युपद्रवं कारयिष्यतीत्यादिभीत्या च । ( तेसि पि णत्थि बोही ) तेषामपि बोधिर्नास्ति ते रत्लत्रयं प्रपालयन्तोऽपि रत्नत्रयाद् भ्रष्टा इति ज्ञातव्या इति भावः । कथंभूतानां तेषाम् ? ( पावं अणुमोयमाणाणं ) जिनदर्शनभ्रशाद्यदुत्पन्नं पापं पातकं तदनुमन्यमानाना मिति शेषः । उक्तं च समन्तभद्रेण गणिना-. .
गाथार्थ-जो जानते हुए भी लज्जा, गर्व और भय के कारण उन मिथ्यादृष्टियों के चरणों में पड़ते हैं उन्हें-'नमोऽस्तु' आदि करते हैं, पाप की अनुमोदना करनेवाले उन लोगों को भी रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती ॥१३॥
विशेषार्थ-जो पुरुष स्वयं सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट न होने पर भी, उन जिनमुद्रा के त्यागी एवं मयूरपिच्छ, कमण्डलु और शास्त्र से रहित कुलिङ्गियों के चरणयुगल में पड़ते हैं-उन्हें नमस्कार करते हैं और साथ ही यह जानते भी हैं कि ये साधु होनेपर भी पूर्वमुद्रा-गृहस्थवेष को ही धारण करनेवाले हैं तथा जिनमुद्रा-वीतराग निम्रन्थ मुद्रा का विघात करनेवाले हैं, अतः नमस्कार के योग्य नहीं हैं; मात्र लज्जा; रस, ऋद्धि और सात इन तीन गर्यो से अथवा 'यह राजमान्य है, नमस्कार न करने पर कुछ उपद्रव करा देगा' इत्यादि भय से नमस्कार करते हैं वे उनके उस पाप की अनुमोदना करनेवाले हैं; अतः उनके रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती अर्थात् वे रत्नत्रय के पालक होकर भी रत्नत्रय से भ्रष्ट हैं। जैसा कि स्वामी समन्तभद्र ने कहा है
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