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मोक्षप्राभृतम् (चरणं हवइ सधम्मो ) परवं पारित्र भवति स्पवर्म मात्मस्वरूपं । ( धम्मो सो हवइ बप्पसमभावो ) धर्मो भवति, कोऽसौ ? स एव यः स्वधर्म यात्मस्वरूपं, स धर्मः कथंभूतः ? अप्पसमाबो-आत्मसमभाव आत्मसु सर्वजीवेसु सभभावः समतापरिणामः, यादृशो मोक्षस्थाने सिद्धो वर्तते तादृश एव ममात्मा शुद्धबुद्धकस्वभावः सिद्धपरमेश्वरसमानः यादृशोऽहं केवलज्ञान स्वमावस्तादृश एव सर्वोऽपि जीवराशिरत्र भेदी न कर्तव्यः । ( सो रागरोसरहिओ जीवस्स अणण्णपरिणामो) स आत्मसमभावः कथंभूतस्तस्य लक्षणं निरूपयन्ति भगवन्तः–स आत्मसमभावो रागरोषरहितो भवति यं प्रति प्रीतिलक्षणं रागं करोमि सोऽप्यहमेव, यं प्रति अप्रीतिलक्षणं द्वेषं करोमि सोऽप्यहमेव तेन रागरोषरहितो जीवस्यात्मनोऽनन्यपरिणाम एकलोलीभावः समत्वमेव परमचारित्रं ज्ञातव्यमिति । तथा चोक्तं
जीवा जिणवर जो मुणइ जिणवर जीव मुणेइ । सो समभावपरिट्ठियओ लहु णिव्वाणु लहेइ ॥ १ ॥
विशेषार्थ-चारित्र स्वधर्म है-आत्मा का स्वरूप है, आत्मस्वरूप जो धर्म है वह आत्म समभाव है अर्थात् सब जीवों में समता भाव है। मोक्ष स्थान में जिसप्रकार सिद्ध परमेष्ठी विद्यमान हैं उसी प्रकार शुद्ध बुद्धक स्वभाव वाला मेरा आत्मा है। जिस प्रकार में केवलज्ञान स्वभाव वाला हूँ उसी प्रकार समस्त जीव राशि केवलज्ञान स्वभाव वाली है शुद्धनय से इनमें शक्तिको अपेक्षा भेद नहीं करना चाहिये । आत्म समभाव रागद्वेष से रहित है अर्थात् जिसके प्रति प्रीतिरूप राग करता हूँ
वह भो मैं ही है और जिसके प्रति अप्रीति रूप द्वेष करता है वह भी में .. हो है इसलिये रागद्वेष से रहित जीवका जो अनन्य परिणाम-एक लोली'भाव रूप समता परिणाम है वही परम चारित्र है ऐसा जानना चाहिये।
जैसा कि कहा है... जीवा जिणवर-जो जीवोंको जिनेन्द्र तथा जिनेन्द्रको जीव जानता है वह समभाव में स्थित है तथा समभाव में स्थित योगी शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त होता है।
१. यह कथन द्रव्यदृष्टि की अपेक्षा है पर्यायदृष्टि से संसारी और सिद्ध जीवमें
महान् अन्तर है।
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