Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
६२६
षट्प्राभृते
सर्वपापात्र वे क्षीणे ध्याने भवति भावना । पापोहतवृत्तीनां ध्यान वार्तापि दुर्लभा ॥
अन्यच्च --
||
'स्वयुध्यान् प्रति सद्भावसनाथापेत कैतवा । प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ॥ २ ॥
उग्गतवेणण्णाणी जं कम्मं खवदि भवहि बहुएहि । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेइ अंतोमुहत्तेण ॥ ५३ ॥ उग्रतपसाऽज्ञानी यत्कर्म क्षपते भवैर्बहुकै: ।
तज्ज्ञानी त्रिभिगुप्तः क्षपयति अन्तर्मुहूर्तेन ॥ ५३ ॥
( उग्गतवेण ). उग्रतपसा तीव्रतपसा कृत्वा । ( अण्णाणी ) अज्ञानो मुनिः आत्मभावनाविवजितस्तपस्वी । ( जं कम्मं खवदि भवहि बहुएहि ) यत्कर्म पापकर्म क्षिपते भवैर्बहुकैः कोटिभवैः शतकोटिभटैः सहस्रकोटिभवैः लक्ष कोटिभवैः कोटिकोटिभवैश्चेत्यादिभिः । ( तं णाणी तिहि गुत्तो ) तत्कर्म ज्ञानी आत्मभावना परः सूरिः तिहि गुत्तो— त्रिभिर्गुप्तो मनोवचनकाय गुप्तिसहित: ( - खवेइ अंतोमुहतेण ) क्षपयति क्षयमानयति - कियति काले ? अन्तर्मुहूर्तेन । कोऽसावन्तर्मुहूर्त इति चेत् ? —
Jain Education International
[ ६.५३
सर्वपापात्र वे- - जब समस्त पापोंका आस्रव क्षीण हो जाता है तभी ध्यान की भावना होती है। जिनकी वृत्ति पापसे उपहन हो रही है ऐसे पुरुषों को ध्यान की बात करना भी दुर्लभ है || १|| और भी कहा है
स्वयूथ्यान् — अपने सह धर्मी भाईयों के प्रति उत्तम भावसे सहित तथा कपट से रहित यथायोग्य आदर प्रकट करना वात्सल्य कहलाता है ||२||
गाथार्थ - अज्ञानी जीव उग्रतपश्चरण के द्वारा जिस कर्मको अनेक भवोंमें खिपा पाता है उसे तीन गुप्तियोंसे सुरक्षित रहने वाला ज्ञानी जीव अन्तर्मुहूर्त में खिपा देता है।
विशेषार्थ- - आत्म भावनासे रहित अज्ञानी मुनि तीव्र तपके द्वारा जिस कर्म को करोड़ - सौ करोड़ - हजार करोड़ - लाख करोड़ अथवा कोटि कोटि भवोंके द्वारा नष्ट कर पाता है उस कर्मको आत्म भावना में तत्पर रहने वाला ज्ञानो मुनि मनोगुप्ति वचनगुप्ति और काय गुप्ति से सुरक्षित होता हुआ अन्तर्मुहूर्त में नष्ट कर देता है ।
१. रत्नकरण्ड श्रावकाचारे ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org