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-६. ७६ ] मोक्षप्राभृतम्
६५१ पणासमितिः, प्रतिष्ठापनासमितिः-मलमूत्रशरीरादिकस्याविरुद्धनिर्जन्तुप्रदेशे विसर्जनं एतासु पंचसु समितिषु यो मूढो निर्विवेकः । तिसृषु गुप्तिषु मनोगुप्तिवाग्गुप्तिकायगुप्तिषु । ( जो मूढो अण्णाणी ) यः पुमान् मूढा निविवेकोऽज्ञानी जिनसूत्रबहिभूतः । (ण हु कालो भणइ झाणस्स )न विद्यते हु-स्फुटं, कोऽसौ ? कालोऽवसरः, ध्यानस्य सप्तमयोगस्य, एवं भणति ब्रूते ।
भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स । तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणो ॥७६॥
भरते दुःषमकाले धर्म्यध्यानं भवति साधोः ।
तदात्मस्वभावस्थिते न हि मन्यते सोऽपि अज्ञानी ।।७६।। ( भरहे दुस्समकाले ) भरहे-भरतक्षेत्रे भारतवर्षे, दुःषमे काले पंचमकाले कलिकालापरनाम्नि काले । (धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स ) धर्मध्यानं भवति साधोदिगम्बरस्य मुनेः । (तं अप्पसहावठिदे ) तद्धर्मध्यानं आत्मस्वभावस्थिते आत्मभावनातन्मये मुनी भवति । (ण हुमण्णइ सो वि अण्णाणो) न मन्यते नाङ्गीकरोति सोऽपि पुमान् पापीयान् अज्ञानी जिनसूत्रबाह्यः ।
ध्यान का समय नहीं है। इसके विपरीत जो पांच महाव्रत, पाँच समिति तथा तीन गुप्तियोंका पालन करने वाला और जिनागमका पाठी-सम्यज्ञानी है वह ऐसा नहीं कहता कि यह ध्यानका समय नहीं है ॥७॥
गाथार्थ-भरत क्षेत्रमें दुःषमनामक पञ्चम काल में मुनि के धर्म्यध्यान होता है तथा वह धय॑ध्यान आत्म स्वभाव में स्थित साधु के होता है ऐसा जो नहीं मानता वह अज्ञानो है ।।७६।। . .. विशेषार्थ-भरत क्षेत्र में क्रम क्रम से उत्सर्पिणी और अपसर्पिणो के
छह कालों का परिवर्तन होता रहता है। इस समय यहाँ दुःषमा नामका अपसपिणी का पांचवाँ काल चल रहा है । यह ठोक है कि इस समय यहाँ मोक्षमार्ग का प्रचलन नहीं है अर्थात् इस काल का उत्पन्न हुआ मनुष्य मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता तथापि धर्म्यध्यान का निषेध नहीं है जो मुनि इस समय की आत्म भावना से तन्मय है उसे धर्म्यध्यान हो सकता है ऐसा जो नहीं मानता है वह पुरुष पापो, अज्ञानी तथा जिनागम के शान से रहित है ।।७।।
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