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षट्प्रामृते
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[६.९८मोक्षाश्रितं कार्य न करोतीत्यर्थः । ( ण वि जाणदि अप्पसमभावं ) नापि जानीते न लभते न वेत्ति आत्मसमभावं आत्मनां जीवानां समत्वपरिणाम-सर्वे जीवाः शुद्धबुद्ध कस्वभावा इति सिद्धान्तवचनं न जानाति । .
मूलगुणं छित्तूण य बाहिरकम्मं करेइ जो साह। सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणलिंगविराधगो णिच्चं ॥९८॥ ___ मलगणं छित्वा बाह्यकर्मकरोति यः साधः । ।
स न लभते सिद्धिसुखं जिनलिङ्गविराधकः नित्यम् ॥ ९८॥ .. ( मूलगुणं छित्तूण य ) मूलगुणमष्टाविंशतिभेदभिन्नं पंचमहाव्रतानि पंचसमितयः पंचेन्द्रियरोधो लोचः षडावश्यकानि अचेलत्वमस्नानं क्षितिशयनं दन्तधावनरहितत्वं उद्भभोजनं एकभक्तं इत्यष्टाविंशतिमूलगुणाम्नाय ।तत्र यदुक्तः स्नाना- . भावस्तस्यायमर्थः
नित्यस्नानं गृहस्थस्य देवाचनपरिग्रहे ।
यतेस्तु दुर्जनस्पर्शात् स्नानमन्यद्विहितं ॥१॥ तत्र यतेः रजस्वलास्पर्श अस्थि स्पर्श-पण्डाल स्पर्श शुनकमर्दभनापितयोगकपालस्पर्श वमने विष्टोपरि पादपतने शरीरोपरिकाकविण्मोचने इत्यादिस्नानोत्पत्ती
है अथवा आत्मा अर्थात् जीवों के समभाव है-सभी जीव शुद्ध बुद्धक स्वभाव से युक्त हैं इस आगम के वाक्य को नहीं जानता है ॥ ९७ ॥ ___ गाथार्थ-जो साधु मूलगुणों को छेद कर बाह्य कर्म करता है वह सिद्धिके सुखको नहीं पाता वह तो निरन्तर जिन लिङ्ग की विराधना करने वाला माना गया है ।। ९८॥
विशेषार्थ-पांच महाव्रत, पांच समितियां, पंचेन्द्रिय दमन, केशलोंच, छह आवश्यक, अचेलत्व, स्नान, भूमिशयन, अदन्तधावन, खड़े खड़े भोजन करना और एक बार भोजन करना ये मुनियों के अट्ठाईस मूलगुण हैं । इन मूलगुणों में जो स्नान नामका मूलगुण बतलाया है उसका भाव यह है
नित्यस्नान-भगवान् की पूजा करने के लिये गृहस्थ को प्रतिदिन स्नान करना चाहिये परन्तु मुनिके दुर्जन का स्पर्श होनेपर स्नान करने की विधि है उसके लिये अन्य स्नान निन्दित हैं। ___ दुर्जन स्पर्श का स्पष्ट भाव यह है कि यदि मुनिको रजस्वला स्त्रीका स्पर्श हो जाय, हड्डी का स्पर्श हो जाय, चाण्डाल का स्पर्श हो जाय, कुत्ता, गधा, नाई बरवा कापालिकों के नर कपालका पक्ष हो जाय, बमन
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