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-८. ३४-३५ ] शीलप्राभृतम्
सम्मत्तणाणदंसणतबबीरियपंचयारमप्पाणं । जलणो वि पवणसहिदो डहंति पोरायणं कम्मं ॥३४॥
सम्यक्त्वज्ञानदर्शनतपोवीर्यपंचाचारा आत्मनां ।
ज्वलनोऽपि पवनसहितः दहंति पौराणकं कर्म ॥ ३४ ॥ गिद्दड्ढअटुकम्मा विसयविरत्ता जिदिदिया धीरा । तवविणयसोलसहिदा सिद्धा सिद्धिदि पत्ता ॥३५॥
निर्दग्धाष्टकर्माणः विषयविरक्ता जितेन्द्रिया धीराः। तपोविनयशोलसहिताः सिद्धाः सिद्धिगति प्राप्ता ॥३५॥
भावार्थ केवलज्ञान और केवलदर्शन से सहित लोक के ज्ञाता जिनेन्द्र भगवान् ने . ऊपर नाना युक्तियों से यह निरूपण किया है कि अक्षनीय-अतीन्द्रिय मोक्ष पद की प्राप्ति शील से होती है मोहनीय कर्म का क्षय होने से पहले वीतराग परिणति रूप शील की प्राप्ति होती है उसके बाद केवलज्ञान की प्राप्ति होती, तदनन्तर मोक्ष प्राप्त होता है। १. सम्मत-सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, तप और वीर्य ये पञ्च आचार
पवन सहित अग्नि के समान जीवों के पुरातन कर्मों को दग्ध कर देते हैं। .. भावार्थ-जिस प्रकार वायु से प्रज्वलित अग्नि काष्ठ के समूह को जला देती है उसी प्रकार सम्यक्त्व आदि पञ्च आचार जीवों के पूर्व बद्ध कर्मों को जला देते हैं। पञ्च आचार के प्रभाव से यह जीव कर्मों का क्षय कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। यहाँ सम्यक्त्व शब्द से चारित्र का ग्रहण जानना चाहिये ॥३४॥
. निद्दड्ढअट्ठकम्मा-जिन्होंने इन्द्रियों को जीत लिया है, जो विषयों से विरक्त हैं, धीर हैं अर्थात् परीषहादि के आने पर विचलित नहीं होते हैं, जो तप, विनय, और शील से सहित हैं ऐसे जीव आठ कर्मों को समग्र रूपसे दग्ध कर सिद्धगति को प्राप्त होते हैं । उनकी सिद्ध संज्ञा है अर्थात् वे सिद्ध कहलाते हैं।
भावार्थ-यहाँ सिद्ध जीव कौन है ? तथा सिद्धि कैसे जीवों को प्राप्त होती है ? इसका उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जो इन्द्रियों को जीत चुके हैं, इन्द्रियों को जीतने के कारण जो उनके स्पर्शादि विषयों से विरक्त हुए हैं जो परीषह तथा उपसर्ग के सहन करने में धीर वीर हैं तथा तप
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