Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
७०६
षट्प्राभृते
[ ८. ३१-३३
जह णाणेण विसोहो सीलेण विणा बुहेहि विद्दिट्ठो । दसपुव्विस्स य भावो ण कि पुर्ण णिम्मलो जादो ॥ ३१ ॥ यदि ज्ञानेन विशुद्धः शीलेन विना बुधैर्नदिष्ठः । दशपूर्विणः च भावो न कि पुनः निर्मलो जातः ॥३१॥ जाए विसयविरतो सो गमयदि णरयवेयणा पउरां । ता लेहदि अरुहपयं भणियं जिणवड्ढमाणेण ॥३२॥ यः विषयविरक्तः स गमयति नरकवेदनां प्रचुरां । तल्लभते अर्हत्पदं भणितं जिनवर्धमानेनं ॥ ३२ ॥ एवं बहुप्पयारं जिणेहि पच्चक्खणाणदरिसीहि । सीलेण य मोक्खयं अक्खातीदं च लोयणाणेह ॥ ३३ ॥ एवं बहुप्रकारं जिनैः प्रत्यक्षज्ञानदर्शिभिः । शीलेन च मोक्षपदं अक्षातीतं च लोकज्ञानैः ॥ ३३॥
जह णाणे -- यदि विद्वान् शील के बिना मात्र ज्ञान से भाव का शुद्ध हुआ कहते हैं तो दश पूर्व के पाठी रुद्र का भाव निर्मल-शुद्ध क्यों नहीं हो गया ।
भावार्थ - मात्र ज्ञान से भाव की निर्मलता नहीं होती । भाव की निर्मलता के लिये राग, द्वेष और मोह के अभाव की आवश्यकता होती है । राग, द्वेष और मोह के अभाव से भाव की जो निर्मलता होती है वही शील कहलाता है इस शील से ही जीव का कल्याण होता है ||३१||
जाएं विसय - जो विषयों से विरक्त है वह नरक की भारी वेदना दूर हटा देता है तथा अरहन्त पद को प्राप्त करता है ऐसा वर्धमान जिनेन्द्र ने कहा है ।
भावार्थ - जिनागम में ऐसा कहा है कि तीसरे नरक तक से निकल कर जीव तीर्थंकर हो सकता है सो सम्यग्दृष्टि मनुष्य नरक में रहता हुआ भी अपने सम्यक्त्व के प्रभाव से नरक की उस भारी वेदना का अनुभव नहीं करता - उसे अपनी नहीं मानता और वहाँ से निकलकर तीर्थंकर पद को प्राप्त होता है यह सब शील की ही महिमा है ||३२||
एवं वहुप्ययारं - इस प्रकार प्रत्यक्ष ज्ञान और प्रत्यक्ष दर्शन से युक्त लोक के ज्ञाता जिनेन्द्र भगवान् ने अनेक प्रकार से कथन किया है कि अतीन्द्रिय मोक्ष पद शील से प्राप्त होता है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org