Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 731
________________ Fve षट्प्रानृते [६. १०४शिवशब्दावाच्यमात्मतत्वमित्यर्थः। इदानीं शास्त्रस्यान्ते मंगलनिमित्तं पंचपरमेष्ठिपुरस्सररत्नत्रयगतिमात्मतत्वमुद्भावयन्ति भगवन्तः अरुहा सिद्धायरिया उज्माया साहु पंचपरमेट्ठी । ते वि हु चिट्ठहि आवे तम्हा आदा हु मे सरणं ॥१०४॥ अर्हन्तः सिद्धा आचार्या उपाध्यायाः साधवः पंचपरमेष्ठिनः । तेऽपि हु तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा हु मे शरणम् ।।१०४।। (अरुहा सिद्धायरिया ) अहंन्तः सिद्धा प्राचार्याश्च । (उज्माया साहु पंचपरमेट्ठी ) उपाध्यायाः, साधवः, एते पंचपरमेष्ठिनो देवा ममेष्टदेवताः। ( ते वि हु चिट्ठहि आदे ) तेऽपि पंचपरमेष्ठिनो देवा अपि तिष्ठन्ति, क्व ? आत्मनि निजजीवतत्वे । केवलज्ञानादिगुणविराजमानत्वात् सकलभव्यजीवसम्बोधनसमर्थत्वाच्यात्मायमर्हन् वर्तते । सर्वकर्मक्षयलक्षणमोक्षपदासत्वात् निश्चयनयान्ममात्मायमेव सिद्धः । दीक्षाशिक्षादायकत्वात् पंचचाराचरणचारणप्रवीणत्वात् सूरिमंत्रतिलक अब शास्त्र के अन्त में मङ्गल के निमित्त पञ्चपरमेष्ठियों के साथ साथ रत्नत्रय से गर्भित जो आत्मतत्व है श्री कुन्दकुन्द भगवन्त उसोका वर्णन करते हैं गाथार्थ-अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु ये पांच परमेष्ठी हैं सो ये पाँचों परमेष्ठी भी जिस कारण आत्मा में स्थित हैं उस कारण आत्मा ही मेरे लिये शरण हो ॥ १०४॥ विशेषार्थ-अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच परमेष्ठी हमारे इष्ट देवता हैं सो ये सभी आत्मा में स्थित हैं अर्थात् आत्मा की ही परिणति रूप हैं। केवलज्ञानादि गुणों से विराजमान होने तथा समस्त भव्यजीवोंके संबोधनमें समर्थ होनेसे मेरी यह आत्मा ही अरहत है। समस्त कर्मोंके क्षय रूप मोक्षको प्राप्त होनेसे निश्चयनय की अपेक्षा मेरी आत्मा ही सिद्ध है। दोक्षा और शिक्षाके दायक होनेसे, पञ्चाचार के स्वयं आचरण तथा दूसरोंको आचरण करानेमें प्रवीण होनेसे और सूरिमन्त्र तथा तिलक मन्त्र से तन्मय होनेके कारण मेरो आत्मा ही आचार्य है । श्रुतज्ञान के उपदेशक होनेसे, स्वपर मतके ज्ञाता होनेसे तथा भव्य जीवोंके संबोधक होनेसे मेरो आत्मा हो उपाध्याय है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रय के साधक होनेसे, सर्व प्रकार के द्वन्द्वों से रहित होनेसे, दोला शिक्षा यात्रा प्रतिष्ठा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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