Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 733
________________ ६८० षट्प्राभृते [ ६. १०६ स्वभावजीवतत्वे तिष्ठन्ति । यदात्मनः श्रद्धानमात्मैव करोति, आत्मनो ज्ञानमामैव विधत्ते, आत्मा सहेकलोलीभावमात्मैव कुरुते, आत्म-वात्मनि तपति, केवलज्ञानैश्वर्यं प्राप्नोति चतुभिरपि प्रकारैरात्मात्मानमेवाराधयति । ( तम्हा आदा हु मे सरणं) तस्मादात्मैव मम शरणमतिमथनसमर्थः संसाराति निषेधकत्वात् आत्मैव मे गतिः, मंगलं मलगालने कर्म मलकलङ्कनिषेधने मंगस्य सुखस्य दाने च समर्थ - त्वादात्मैव परमं मंगलमिति भावार्थः । एवं जिणपण्णत्तं मोक्खस्य य पाहुडं सुभत्तीए । जो पढइ सुणइ सो पावइ सासयं सोक्खं ॥ १०६ ॥ एवं जिनप्रज्ञप्तं मोक्षस्य च प्राभृतं सुभक्त्या । यः पठति शृणोति भावर्यात स प्राप्नोति शाश्वतं सौख्यम् ॥ १०६ ॥ ( एवं जिणपण्णत्तं ) एवममुना प्रकारेण जिनप्रज्ञप्तं सर्वज्ञवीतरागभावितं ( मोक्खस्स य पाहुडं सुभत्तीए ) मोक्षस्य परमनिर्वाणपदस्य प्राभृतं सारमिदं शास्त्र सुष्ठु — अतिशयेन भक्त्या परमधर्मानुरागेण । ( जो पढइ सुणइ भावइ ) य आसन्नभव्यो जीवः पठति जिह्वा करोति यश्च भव्यजीवः श्रुणोत्याकर्णयति, यश्च मोक्षाभिलाषुको जीवो भावयति एतच्छास्त्रं यस्मै रोचते । ( सो पावड अर्थात् तन्मयी भाव को प्राप्त होती है, आत्मा ही आत्मा में तपती है और आत्मा ही आत्मा में केवलज्ञान रूप ऐश्वर्य को प्राप्त होती है इस तरह चारों प्रकार से आत्मा ही आत्मा की आराधना करती है इसलिये आत्मा ही मेरा शरण है- मेरी पीड़ाको नष्ट करने में समर्थ है । इस प्रकार संसार की पीड़ा का नाश करने वाली होनेसे आत्मा ही मेरी गति हैअन्तिम लक्ष्य है । आत्मा ही मङ्गल रूप है क्योंकि वही मं अर्थात् पापको गलाने वाली है अथवा कर्म रूपी मलके कलंक को दूर करने वाली है अथवा आत्मा हो मगं अर्थात् सुखको देनेवाली है इसलिये आत्मा ही परम मङ्गल रूप है || १०५ ।। गाथार्थ - इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा प्रणीत इस मोक्षप्राभृत 'को जो उत्तम भक्ति से पढ़ता है, सुनता है और इसकी भावना करता है वह शाश्वत सुखं- अविनाशी मोक्ष सुखको प्राप्त होता है ।। १०६ ।। विशेषार्थ - ग्रन्थ के फलका निरूपण करते हुए श्री कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार सर्वज्ञ वीतराग देवके द्वारा मूलरूप से उपदिष्ट इस मोक्षप्राभूत नामक सारभूत शास्त्रको जो निकट भव्यजीव परम धर्मानुराग से पढ़ता है अर्थात् कष्ठस्थ करता है, सुनता है और मोक्ष की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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