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-७. १६-१७ ]
लिंगप्राभृतम्
बंधे णिरओ संतो सस्सं खंडेदि तह व वसुहं पि ।
छिंददि तरुगण बहुसो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ १६ ॥ बंध 'विरतः सन् सस्यं खण्डयति तथा च वसुधामपि । छिनत्ति तरुगणं बहुशः तिर्यग्यानिः न स श्रमणः ॥ १६ ॥ रागो ( रागं) करेदि णिच्चं महिलावग्गं परं च दूसेदि । दंसणणाणविहोणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥१७॥ रागं करोति नित्यं महिलावर्गं परं च दृष्यति । दर्शनज्ञानविहीनः तिर्यग्योनिः न स श्रमणः ॥ १७॥
कभी दौड़ता है और कभी पृथिवी को खोदता है वह पशु है, मुनि नहीं है।
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भावार्थ - मुनिलिङ्ग धारण करते समय ईर्यासमिति से चलने का नियम लिया जाता है सो उस प्रतिज्ञा की ओर ध्यान न देकर जो कूदता हुआ, गिरता हुआ, दोड़ता हुआ तथा पृथिवी को खोदता हुआ चलता है वह मुनि नहीं है वह तो वृषभ आदि पशुके तुल्य है ॥ १५॥
बंघेणिरओ - जो किसी के बन्ध में लीन होकर अर्थात् उसका आज्ञाकारी बनकर धान कूटता है, पृथिवी खोदता है और वृक्षोंके समूहको छेदता है वह पशु है, मुनि नहीं है ।
भावार्थ - यह कथन अन्य साधुओं की अपेक्षा है जो साघु वनमें रहकर स्वयं धान तोड़ते हैं उसे कूटते हैं, अपने आश्रम में वृक्ष लगाने आदिके उद्देश्यसे पृथिवी खोदते हैं तथा वृक्ष लता आदि को छेदते हैं वे पशु के तुल्य हैं उन्हें हिंसा पापकी चिन्ता नहीं है ऐसा मनुष्य साधु नहीं कहला
सकता ॥ १६॥
रागोकरेदि - जो स्त्रियोंके समूह के प्रति निरन्तर राग करता है दूसरे निर्दोष प्राणियोंको दोष लगाता है तथा स्वयं दर्शन और ज्ञानसे रहित है वह पशु है, साधु नहीं है ।
भावार्थ - कितने ही साधु निरन्तर स्त्रियों के पास उठते हैं बैठते हैं, उन्हीं से अधिक वार्तालाप करते हैं, दूसरे निर्दोष व्यक्तियों की निन्दा करते रहते हैं और स्वयं ज्ञान दर्शन से रहित हैं न अपने इन गुणों की वृद्धि की ओर लक्ष्य रखते हैं वे साधु नहीं हैं वे पशु हैं - पशुके तुल्य अज्ञानी हैं ||१७||
१. नीरजाः म० अ० ।
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