Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 748
________________ शीलप्राभृतम् गाणं चरित्तसुद्ध लिंगग्गहणं च दंसणविसुद्ध । संजमसहिदो य तवो थोओ वि महाफलो होइ ॥ ६ ॥ -८. ६-७ ] ६९५ ज्ञानं चारित्रशुद्ध लिंगग्रहणं च दर्शनविशुद्ध । संयमसहितश्च तपः स्तोकमपि महाफलं भवति ॥ ६॥ गाणं णाऊण णरा केई विसयाइभावसंसत्ता । हिडंति 'चादुरर्गादि विसएसु विमोहिया मूढा ॥ ७ ॥ ज्ञानं ज्ञात्वा नराः केचित् विषयादिभावसंसक्ताः । हिण्डन्ते चातुर्गीत विषयेषु विमोहिता मूढाः ॥ ७ ॥ करना है परन्तु उसकी सिद्धि न होने से सब का निरर्थकपना दिखाया है ॥५॥ गाणं चरित - चारित्र से शुद्ध ज्ञान, दर्शन से शुद्ध लिङ्ग धारण और संयम से सहित तप थोड़ा भी हो तो वह महाफल से युक्त होता है । भावार्थ - जिस ज्ञान के साथ थोड़ा भी यथार्थचारित्र है वह ज्ञान यथार्थं कार्यकारी है । जिस मुनिवेश में सम्यग्दर्शन की विशुद्धता है वह थोड़े समय के लिये अर्थात् मरणान्त काल में भी धारण किया गया हो तो भी यथार्थ फल को देता है इसी प्रकार जिस तपश्चरण में संयम की साधना है वह मात्रा में अल्प होने पर भी कर्म निर्जरा का प्रमुख कारण होता है || ६ || गाणं णाऊण - जो कोई मनुष्य ज्ञान को जान कर भी विषयादिक रूप भाव में आसक्त रहते हैं वे विषयों में मोहित रहने वाले मूर्ख प्राणी चतुर्गति रूप संसार में भ्रमण करते रहते हैं । भावार्थ - ज्ञान का फल विषयों से निवृत्त अनेक शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर भी विषयों में करनेका पुरुषार्थं नहीं करते हैं वे मूढ़ कहलाते हैं अर्थात् जानते हुए भी विषयपान करने वाले समान हैं, मूढ़ हैं और अपनी इस मूढ़ता - मूर्खता के कारण वे चारों गतियों में चिरकाल तक भ्रमण करते रहते हैं ॥७॥ १. चतुरगति म० । Jain Education International होना है सो जो मनुष्य संलग्न रहते हैं उनके त्याग For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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