Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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शीलप्राभृतम्
वट्ट सुय खण्डेसु य भद्देसु य विसालेसु अंगेसु । अंगेसु य पप्पेसु य सव्वेसु य उत्तमं सीलं ॥ २५ ॥
-८. २५-२६ ]
वृत्तेषु च खण्डेषु च भद्रेषु च विशालेषु अंगेषु । अंगेषु च प्राप्तेषु सर्वेषु च उत्तमं शीलं ॥२५॥ पुरिसेण वि सहियाए कुसुमयमूढेहि विसयलोलह । अरयघरट्ट व भूर्दोह ॥ २६ ॥
संसारे
भमिदव्वं
पुरुषेणापि सहितेन कुसमयमूढैः विषयलोलेः । संसारे भ्रमितव्यं अरहटघरट्टं इव भूतैः ॥ २६ ॥
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खल के समान समझते हैं जिस प्रकार इक्षुका रस ग्रहण कर लेने पर छिलके फेंक दिये जाते हैं उसी प्रकार विषयों का सार उन्हें जानना था सो ज्ञानी जींव इस सार को ग्रहण कर छिलके के समान विषयों का त्याग कर देता है । ज्ञानी मनुष्य विषयों को ज्ञेयमात्र जान उन्हें जानता तो है परन्तु उनमें आसक्त नहीं होता है अथवा एक भाव यह प्रकट होता है कि कुशल मनुष्य विषय को दुष्ट विषके समान छोड़ देते हैं ||२४||
वट्टेसु. य - इस मनुष्य के शरीर में कोई अङ्ग वृत्त अर्थात् गोल है, कोई खण्ड अर्थात् अर्धं गोलाकार है कोई भद्र अर्थात् सरल है और कोई विशाल अर्थात् चौड़े हैं सो इन अंगों के यथास्थान प्राप्त होने पर भी सब में उत्तम अङ्ग शील ही है ।
भावार्थ - शीलके बिना मनुष्य के समस्त अङ्गों की शोभा निःसार है इसलिये विवेकी जन शील की ओर ही लक्ष्य रखते हैं ||२५||
पुरिसेण - मिथ्यामत में मूढ हुए कितने हो विषयों के लोभी मनुष्य ऐसा कहते हैं कि हमारा पुरुष ब्रह्म तो निर्विकार है विषयों में प्रवृत्ति भूत चतुष्टय की होती है इसलिये उनसे हमारा कुछ बिगाड़ नहीं है सो यथार्थ बात ऐसी नहीं है क्योंकि उस भूत चतुष्टय रूप शरीर के साथ पुरुष को भी ब्रह्मको भी अरहट की घड़ी के समान संसार में भ्रमण करना पड़ता है ।
'भावार्थ - जबतक यह जीव शरीर के साथ एकी भावको प्राप्त हो १. इस गाथा का भावार्थ पं० जयचन्द्र जी ने इस प्रकार लिखा है
'कुमति विषया सक्त मिध्यादृष्टि आपनो विषयनिकू भले माति सेव हैं। केई कुमती ऐसे भी हैं जो ऐसे कहे हैं जो सुन्दर विषय सेवने तें ब्रह्म प्रसन्न होय है यह परमेश्वर की बड़ी भक्ति है ऐसे कहिकर अत्यन्त आसक्त
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