Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 749
________________ षट्प्राभृते ८. ८-१०जे पुण विसयविरत्ता णाणं गाऊण भावणासहिदा । छिदंति 'चादुरर्गाद तवगुणजुत्ता न संदेहो ॥ ८॥ ये पुनविषयविरक्ता ज्ञानं ज्ञात्वा भावनासहिताः। छिन्दन्ति चातुर्गति तपोगुणयुक्ता न सन्देहः ॥ ८॥ जह कंचणं विसुद्ध धम्मइयं खंडियलवणलेवेण । तह जीवो वि विसुद्धं णाण विसलिलेग विमलेणं ॥ ९॥.. यथा कंचन विशुद्धं ध्मातं खडिकलवणलेपेन। तथा जीवोऽपि विशुद्धो ज्ञानसलिलेन विमलेन ॥ ९॥ णाणस्स पत्थि दोसो का पुरिसाणो वि मंदबुद्धीणो। जे गाणगविदा होऊणं विसएसु रज्जति ॥१०॥ ज्ञानस्य नास्ति दोषः कापुरुषस्यापि मन्दबुद्धः । ये ज्ञानगविता भूत्वा विषयेषु रज्यन्ति ॥१०॥ . . जे पुण-किन्तु जो ज्ञान को जानकर उसकी भावना करते हैं और विषयों से विरक्त होते हुए तपश्चरण तथा मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त होते हैं वे चतुर्गति रूप संसार को छेदते हैं-नष्ट करते हैं इसमें संदेह नहीं है। भावार्थ-जो पुरुष हेयोपादेय का ज्ञान प्राप्त कर निरन्तर उसका विचार करते हैं और विचारों को परिपक्व बनाकर विषय कषाय से निवृत्त हो तपश्चरण करते हैं-मुनिव्रत का पालन करते हैं वे संसार सागर से पार होकर मोक्षको प्राप्त होते हैं इसमें संशय नहीं है ।।८।। जह कंचणं-जिस प्रकार सुहाग और नमकके लेप से युक्त कर फूका हुआ सुवर्ण विशुद्ध हो जाता है उसी प्रकार ज्ञानरूपी निर्मल जल से यह जीव भी शुद्ध हो जाता है ।। ____ भावार्थ-मोहनीय कर्म के उदय से इस जीव का ज्ञान अनादिकाल से मलिन हो रहा है उसी मलिन तप के कारण यह अशुद्ध होकर संसार सागर में मज्जनोन्मज्जन करता रहता है इसलिये ज्ञान में से मोह को धारा को दूर कर ज्ञानको निर्मल बनाने का पुरुषार्थ करना चाहिये । ज्ञान की निर्मलता से ही आत्मा की निर्मलता होती है ॥९॥ ___गाणस्स-जो पुरुष ज्ञान के गर्व से युक्त हो विषयों में राग करते हैं १. चतुरगति अ०। २. कम्पुरिसाणी अ० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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