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षट्प्राभूते
[ ७. २१-२२
करता है अर्थात् कष्ट भोग कर भी धर्म की रक्षा करता है वह उत्तम स्थान को प्राप्त होता है ।
भावार्थ - ज्ञानी जीवों ने लिङ्ग प्राभृत का उपदेश मुनिजनों के हित के लिये दिया है इसलिये इसे जानकर मुनिव्रत का निर्दोष पालन करना चाहिये । यदि ग्रहण किये हुए व्रत के पालन करने में परिषह आदिका कष्ट भी उठाना पड़े तो उसे समता भाव से सहन करना चाहिये। ऐसा पुरुष ही उत्तम स्थान - निर्वाण को प्राप्त होता है ||२२||
इस प्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित लिङ्गप्राभृत समाप्त हुआ
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