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षशाभूते [६. १०६श्रीमल्लिभूषणागुरोर्वचनादलंच्या । न्मुक्तिश्रिया सह समागममिच्छतेयं ॥ षट्प्राभृते सकलसंशयशत्रुहंती । टीका कृताऽकृतधियां श्रुतसागरेण ॥३॥
इति श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवाचार्यलाचार्यगृध्रपिच्छाचार्यनामपंचकविराजितेन चतुरङ्गुलाकाशगमनद्धिना पूर्वविदेहपुण्डरीकिणीनगरवंदितसीमन्धरापरनामस्वयंप्रभजिनेन तत्श्रुतज्ञानसम्बोधितभरतवर्षभव्यजीवेन श्रीजिनचन्द्र सूरिभट्टारक पट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृतग्रन्थे सर्वमुनिमण्डलीमंडितेन कलिकालगौतमस्वामिना श्रीपद्मनन्दिदेवेन्द्रकीति-विद्यानन्दिपट्टभट्टार. केण श्रीमल्लिभूषणेनानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानिते नोभयभाषाकवि• चक्रवर्तिना श्रीविद्यानन्दिगुर्वन्तेवासिना सूरिवर श्रीश्रुतसागरेण विरचिता मोक्षप्राभृतटीका
परिसमाप्ता षष्ठः परिच्छेदः श्री यात्
श्री मल्लिभूषण-श्री मल्लिभूषण गुरुके अलङ घश वचनों से मुक्ति लक्ष्मी के साथ समागम को इच्छा करने वाले श्री श्रुतसागर ने मन्दबुद्धि लोगोंके लिये षट्प्राभृत ग्रन्थ पर समस्त संशयरूपी शत्रुओं को नष्ट करने वाली यह टीका रची है ॥३॥ ___ इस प्रकार श्री पद्मनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य और गद्धपिच्छाचार्य इन पांच नामोंसे विराजित, चार अंगुल प्रमाण आकाश में चलनेवाली ऋद्धि से युक्त, पूर्वविदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी में सीमन्धर इस दूसरे नामसे युक्त स्वयंप्रभ जिनकी वन्दना करने वाले, उनके श्रुतज्ञान से भरत क्षेत्रके भव्य जीवों को सम्बोधित करने वाले, श्री जिनचन्द्रसूरि भट्टारक के पट्टके आभरणभूत तथा कलिकाल के सर्वज्ञ स्वरूप श्री कुन्दकुन्द स्वामी के द्वारा विरचित षट्नाभृत ग्रन्थ पर समस्त मुनि मण्डली से मण्डित कलिकाल के गौतमस्वामी, श्री पद्मनन्दी, देवेन्द्रकीर्ति और विद्यानन्दी के पद पर स्थित भट्टारक श्री मल्लिभूषण के द्वारा अनुमत सकल विद्वज्जनों के समूह से सन्मानित, उभय भाषा के कवियों के चक्रवर्ती, श्री विद्यानन्दी गुरुके शिष्य सूरिवर श्री श्रुतसागर के द्वारा विरचित मोक्षप्राभूत की टोका समाप्त हुई ।
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