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षट्प्राभृते
[ ६. १०२
गुणगण विहूसियंगो हेयोपादेयणिच्छिदो साहू । झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं ॥ १०२ ॥
गुणगणविभूषिताङ्गः हेयोपादेय निश्चितः साधुः । ध्यानाध्ययने सुरत्तः स प्राप्नोति उत्तमं स्थानम् ॥ १०२ ॥
( गुणगण विहूसियंगो) गुणानां ज्ञानध्यानतपोरत्नानां गणैः समूहैविभूषिताङ्गः शोभितशरीरः । ( हेयोपादेयणिच्छिदो साहू ) हेयं मिथ्यात्वादिकं उपादेयं ग्रहणीयं सम्यक्त्व रत्नादिकं तत्र निश्चितं निश्चयो यस्य स हेयोपादेयनिश्चितः साधू रत्नश्रयाराधको मुनिः । ( झाणज्झयणे सुरदो ) ध्यानमार्तरौद्रध्यानद्वयपरित्यागेन धर्म्यशुक्लध्यानद्वये रतस्तत्परस्तन्निष्ठस्तदेकतानः । ( सो पावर उत्तमं ठाणं ) य एवंविघः साधुः स प्राप्नोति किं ? उत्तमस्थानं भावस्थानं 'शरीरलक्षण हीनस्थानं' परिहृत्य कर्मशरीरबन्धन 'रहित मोक्ष प्राप्नोति लभते सिद्धः प्रसिद्धश्च भवतीति तात्पर्यार्थः ।
गाथा - गुणों के समूह से जिसका शरीर शोभित है, जो हेय और उपादेय पदार्थों का निश्चय कर चुका है तथा ध्यान और अध्ययन में जो अच्छी तरह लीन रहता है वही साधु उत्तम स्थान को प्राप्त होता है ॥ १०२ ॥
विशेषार्थ - ज्ञान ध्यान और तप रूपी रत्न गुण कहे जाते हैं इनके समूह से जिस साधुका शरीर सुशोभित हो रहा है। मिथ्यात्वादिक हेयछोड़ने योग्य हैं तथा सम्यक्त्व रत्नादिक उपादेय-ग्रहण करने योग्य पदार्थ हैं इन दोनों के विषय में जो साधु दृढ़निश्चय कर चुका है तथा आतं और रौद्र इन दोनों खोटे ध्यानों को छोड़कर धर्म्य और शुक्लध्यान में तथा वीतराग सर्वज्ञ देवके द्वारा उपाज्ञात शास्त्रों के अध्ययन में जो तदेकतान हो रहा है पूर्ण रूपसे संलग्न है वह साधु उत्तम स्थान को अर्थात् रूप हीन स्थानको छोड़कर कर्म और शरीर के बन्धन से रहित मोक्षको प्राप्त होता है ॥ १०२ ॥
१. शरीर लक्षणं म० । २. रहितत्वं मोक्षं म० ।
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