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-६. १०१] मोक्षप्रामृतम्
६७५ 'वेरग्गपरो साहू परदव्यपरम्मुहो य सो होदि । संसारसुहविरत्तो सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो ॥१०१॥
वैराग्यपरः साधुः परद्रव्यपराङ्मुखश्च स भवति ।
संसारसुखविरक्तः स्वकशुद्धसुखेषु अनुरक्तः ॥ १० ॥ (वेरग्गपरो साहू ) वैराग्यपरः साधुः संसारशरीरभोगनिविण्णः सम्यग्दर्शनज्ञानानामाराधकत्वात्साधक आत्मनामान्वर्थत्वात् । ( परदव्वपरम्मुहो य सो होदि ) यः साधुः वैराग्यपरः स साधुः परद्रव्यपराङ मुखो भवति इष्टवनितादिविरक्तो भवति । ( संसारसुहविरत्तो) संसारस्य सुखं कपूरकस्तूरीचन्दनमालापट्टकुलसुवर्णमणिमौक्तिकप्रासादपल्यंकनवयौवनयुवतिपुत्रसम्पदिष्टसंयोगारोग्यदीर्घायुयशःकीतिप्रभृतिकं तस्माद्विरक्तः ( सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो) पूर्वोक्तामशरीरकर्मसमुत्पन्नविश्वसुखाद्विरज्य निष्केवललवणखिल्यास्वादवत् सुखेषु अनन्तज्ञानादिचतुष्टयेऽनुरक्तोऽनुरागवान् भवतीति भावार्थः ।
गाथार्य--जो साधु वेराग्य में तत्पर होता है वह परद्रव्य से परांगमुख रहता है । इसी प्रकार जो साधु संसार सुख से विरक्त होता है वह स्वकीय शुद्ध सुख में अनुरक्त होता है ॥ १० ॥
विशेषार्थ-जो साधु वैराग्यमें तत्पर है, अर्थात् संसार शरीर और भोगोंसे विरक्त है वह इष्ट स्त्री आदि परद्रव्य से विमुख रहता है और जो कपूर, कस्तूरी, चन्दन, पुष्पमाला, रेशमी वस्त्र, सुवर्ण, मणि, मोती, महल, पलंग,. नवयोवनवती स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति, इष्टजन संयोग, आरोग्य, दीर्घायु तथा यशस्कोति आदि संसार के सुखसे विरक्त रहता है वह अनन्त चतुष्टय रूप अपने दुख सुख में अनुरागी होता है जिस प्रकार नमक डलोको जिस ओर से चखा जाय उसी ओर से उसमें खारापन का स्वाद आता है इसी प्रकार आत्मा का किसी भी अंश-गुण की अपेक्षा अनुभव किया जाय उसी अंश से वह अनन्त ज्ञानादि रूप अनुभव में आता है ॥ १०१॥
१. ५० जयचन्द्रेण इमां गायां १०२ तम् गाथयां सह पठित्वा "उत्तमं ठाणं
पावइ" इति कर्म किया सम्बन्धोयोजितः।
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