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षट्प्राभृते
[६. ९५-९६मिच्छाविट्ठी जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ। जम्मजरमरणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो ॥१५॥ ___ मिथ्यादृष्टिः यः सः संसारे संसरति सुखरहितः।।
जन्मजरामरणप्रचुरे दुःखसहस्राकुले जीवः ॥ ९५ ॥ (मिच्छादिट्ठी जो सो) मिथ्यादृष्टियों जीवः सः । किं करोति ? ( संसारे संसरेइ सुहरहिओ ) संसारे भवसागरे संसरति सम्यकप्रविशति सुखरहितो दुःख- .. सहितः । कथंभूते संसारे ( जम्मजरमरणपउरे ) जन्मजरामरणप्रचुरे बहुले । ( दुक्खसहस्साउले जीवो ) दुःखानां सहस्र रनन्तदुःखैराकुले परिपूर्णे कः ? जीवो मिथ्यादृष्टिप्राणीति शेषः।
सम्मगुण मिच्छदोसो मणेण परिभाविऊण तं कुणसु। जं ते मणस्स रुच्चइ किं बहुणा पलविएणं तु ॥१६॥ सम्यक्त्वं गुणः मिथ्यात्वं दोषः मनसा परिभाव्य तत्कुरु ।। यत्ते मनसे रोचते किं बहुना प्रलपितेन तु ।। ९६ ॥
( सम्म गुण मिच्छं दोसो ) सम्यक्त्वं गुणो भवति, मिथ्यात्वं दोषो भवति पापं स्यात् । ( मणेण परिभाविऊण तं कुणसु ) इममथं मनसा चित्तेन परिभाव्य
गाथार्थ-जो मिथ्यादृष्टि जीव है वह जन्म जरा और मरण से युक्त तथा हजारों दुःखों से परिपूर्ण संसार में दुखी होता हुआ भ्रमण करता रहता है ॥९५ ॥
विशेषार्थ-मिथ्यात्व का फल बतलाते हुए श्री कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि जो जीव मिथ्यादृष्टि है वह सदा सुखसे रहित अर्थात् दुखी होता हुआ जन्म जरा और मरण से परिपूर्ण तथा अनन्त दुःखों से व्याप्त संसार में संसरण करता रहता है-चतुर्गति रूप संसार में सब ओर परिभ्रमण करता रहता है। इस परिभ्रमण से बचने का मूल उपाय एक सम्यग्दर्शन ही है सो हे आत्महित के अभिलाषो जन इसे धारण कर ॥ ९५ ॥
गाथार्थ-सम्यक्त्व गुण है और मिथ्यात्व दोष है ऐसा मनसे विचार कर तेरे मनके लिये जो रुचे वह कर अधिक कहने से क्या लाभ है ? ..
विशेषार्थ-आचार्य सम्यक्त्व और मिथ्यात्व की विस्तार से चर्चा करने के बाद कहते हैं कि भाई ! अधिक कहने से क्या लाभ है ? संक्षेप में इतना ही समझ ले कि सम्यक्त्व गुण रूप है और मिथ्यात्व दोष रूप है
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