Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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मोक्षत्रामृतम् भक्तः । ( ग हु मण्णइ सुद्धसम्मत्तो) न मानयति न सन्मानं ददाति कोऽसौ ? शुद्धसम्यक्त्वो निर्मलसम्यक्त्वरत्नमंडितः ।
सम्माइट्ठी सावय धम्मं जिणदेवदेसियं कुणदि । विवरीयं कुव्वंतो मिच्छादिट्ठी मुणयन्वो ॥१४॥
सम्यग्दृष्टिः श्रावकः धर्म जिनदेवदेशितं करोति ।
विपरीतं कुर्वन् मिथ्यादृष्टिः ज्ञातव्यः ॥ ९४ ॥ ( सम्माइट्ठी सावय ) सम्यग्दृष्टिः श्रावकः सम्यक्त्वरत्नसंशोभितो गृहस्थः । अथवा श्रावयतीति श्रावको मुनिः। अथवा हे सम्यग्दृष्टिश्रावकं ! इति सम्बोधनपदं । ( धम्म जिणदेवदेसियं कुणदि ) धर्म दुर्गतिपातादुदृत्य इन्दचंन्द्र मुनीन्द्रवन्दिते पदे धरतीति धर्मस्तं । जिणदेवदेसियंजिनदेशितं श्रीमदभगवदहत्सर्वज्ञवीतरागकथितं करोति । ( विवरीयं कुब्वंतो) विपरीतं कुर्वन् रुद्रजिमिनिकणभक्षकापिलसौगतादिभिरुपदिष्टं धर्म कुर्वन् पुमान् । ( मिच्छादिट्ठी मुणेयव्यो) मिथ्यादृष्टिरिति
ज्ञातव्यः।
mmmmm~~~~~ यक्ष आदि असंयत देव हैं इन सबकी जो वन्दना करता है, मानता है अर्थात् उनको श्रदा करता है वह मिथ्यादृष्टि है। शुद्ध सम्यक्त्व का धारक जीव न उन्हें वन्दना करता है और न उनकी श्रद्धा करता है ॥१३॥ . गाथार्थ-सम्यग्दृष्टि श्रावक अथवा मुनि जिनदेवके द्वारा उपदेशित . धर्मको करता है । जो विपरीत धर्मको करता है उसे मिथ्यादृष्टि जानना
चाहिये ॥९४॥ . विशेषार्थ-प्रसिद्धि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि श्रावक का अर्थ सम्यक्त्व
रूपी रत्नसे सुशोभित गहस्थ है और 'श्रावयति धर्म भव्यजीवान' जो भव्य जीवों को धर्म श्रवण करावे । इस व्युत्पत्ति के अनुसार मुनि अर्थ भी • होता है । 'सावय'-श्रावक यह सम्बोधनान्त पद भी माना जा सकता है। श्रावक को सम्बोधित करते हुए कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि हे श्रावक ! जो जिनदेवके द्वारा उपदेशित धर्मको करता है वह सम्यग्दृष्टि है तथा जो इससे विपरीत धर्मको करता है उसे मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये। जिनदेव के द्वारा उपदेशित धर्म दुर्गति के पतन से निकालकर इन्द्र चन्द्र . तथा बड़े बड़े मुनियों के द्वारा वन्दित पद में प्राप्त करा देता है इसलिये वह धर्म है। इसके विपरीत रुद्र जिपिनि कणभक्षक, सांख्य तथा बौद्ध आदिके द्वारा उपदिष्ट धर्म कुगति पातका कारण होने से अधर्म है।। १४॥ .
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