Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 724
________________ -६.९७ ] मोक्षप्रामृतम् ६७१ सम्यग्विचायं तत्त्वं विधेहि । तत् किं ? ( जं ते मणस्स रुच्चर ) यद्वयोर्गुणदोषयोर्मध्ये ते तव मनसे रोचते । ( कि बहुणा पलविएणं तु ) बहुना प्रलपितेन अनर्थकवचनेन कि-- न किमपि । यदि तव मनसे गुणो रोचते तर्हि सम्यक्त्वं विधेहि उत दोषो रोचते तर्हि मिथ्यात्वं विधेहि । अर्थतस्तु सम्यक्त्वं विधेहीति सम्यगुपदेशा भगवतां श्रीकुन्दकुन्दाचार्याणां । बाहिरसंगविमुक्को ण वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गंथो । किं तस्स ठाणमउणं ण वि जाणदि अप्पसमभावं ॥९७॥ बाह्यसंगविमुक्तः न विमुक्तः मिथ्याभावेन निग्रन्थः । कि तस्य स्थानमोनं नापि जानाति आत्मसमभावम् ॥ ९७ ॥ ( बाहिरसंगविमुक्को ) बहिःसंगाद्विमुक्तो रहितो नग्नवेषः । ( ण वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गंथो ) नापि मुक्तः नैव मुक्तः न विमुक्तो वा मिथ्याभावेन - मिथ्यात्वदोषेण रहितो न भवति, कोऽसौ ? निर्ग्रन्थो दिगम्बरवेषाजीवी जीवः । ( कि तस्स ठाणमउणं ) तस्य निग्रन्थस्य स्थानं उद्भकायोत्सर्गः किं न किमपि, कर्मक्षयलक्षणं मोक्षं न साधयतीत्यर्थः । तथा मौनं कि- मूकत्वमपि न किमपि, ऐसा तू मन से विचार कर । फिर तुझे जो अच्छा लगे उसे कर । यदि सम्यक्त्व अच्छा लगता है तो सम्यक्त्व को प्राप्त कर और मिथ्यात्व अच्छा लगता है तो मिथ्यात्व को कर परन्तु मिथ्यात्व का फल दुर्गति है और सम्यक्त्व का फल सुगति है । यहाँ मिथ्यात्व को दोष और सम्यक्त्व को गुण रूप बता कर सम्यक्त्व की ओर ही आचार्य ने लक्ष्य दिलाया 1198 11 तो गाथार्थ - जो साधु बाह्य परिग्रह से भाव से नहीं छूटा है. उसका कायोत्सर्ग के से रहना क्या है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है को तो जानता ही नहीं है ॥ ९७ ॥ छूट गया है परन्तु मिथ्यालिये खड़ा होना अथवा मौन क्योंकि वह आत्मा के समभाव विशेषार्थ - मिथ्यात्व को छोड़े बिना मात्र बाह्य परिग्रह का छोड़ना कार्यकारी नहीं है इस बातका वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं कि जिस निग्रन्थ साधु ने-दिगम्बर धारी मुनि ने बाह्य परिग्रह तो छोड़ दिया परन्तु मिथ्याभाव रूप अन्तरङ्ग परिग्रह नहीं छोड़ा उसका खड़े होकर कायोत्सर्ग करना तथा मौन धारण करना क्या कर सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं । उसकी यह सब प्रवृत्ति कर्मक्षय रूप मोक्षका कारण नहीं है क्योंकि वह मात्मा समभाव रूप है-रागद्वेष से रहित है यह नहीं जानता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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