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६५२ षट्नाभृते
[६. ७७अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहहि इंदत्तं । लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिदि जंति ॥७७॥ अद्यापि त्रिरत्लशुद्धा आत्मानं ध्यात्वा लभन्ते इन्द्रत्वम् ।
लोकान्तिकदेवत्वं ततः च्युत्वा निर्वाणं यान्ति ॥७॥ ( अज्ज वि तिरयणसुद्धा ) अद्यापि पंचमकालोत्पन्नाः समनस्काः पंचेन्द्रिया उत्तमकुलादिसामग्रीप्राप्ता वैराग्येण गृहीतदीक्षास्त्रिरत्नशुद्धाः सम्यक्त्वज्ञानचारित्रनिर्मला वर्तन्त एव, ये कथयन्ति महावतिनो न विद्यन्ते ते नास्तिका जिनसूत्रबाह्या ते ज्ञातव्याः आसन्न भव्याः किं कुर्वन्ति ? (अप्पा झाएवि लहहि इंदत्तं ) आत्मानं ध्यात्वा भावयित्वा लभन्ते इन्द्रत्वं शक्रपदं । न केवलमिन्द्रत्वं लभन्ते, (लोयंतियदेवत्तं ) केचिदल्पश्रुता अपि साधव आत्मभावनावलेन लोकान्तिकत्वं लभन्ते पंचमस्वर्गस्यान्ते पर्यन्तप्रदेशेषु तेषां विमानानि सन्ति, तत्र भवा लोकान्तिकाः सुरमुनयश्च कघ्यन्ते, ते स्वर्ग स्थिता अपि ब्रह्मचर्य प्रतिपालयन्ति-स्त्रीरहिता भवन्ति, तीर्थंकरसम्बोधनकाले मत्यलोकमागच्छन्ति अथवा स्वस्थानमेवावतिष्ठन्ते ।
गाथार्थ-आज भी रत्नत्रयसे शुद्धता को प्राप्त हुए मनुष्य आत्मा का ध्यान कर इन्द्र पद तथा लोकान्तिक देवोंके पदको प्राप्त होते हैं और वहाँ से च्युत होकर निर्वाणको प्राप्त होते हैं ॥७७॥
विशेषार्थ-आज भी पञ्चम काल में उत्पन्न सैनी पञ्चेन्द्रिय जीव उत्तम कुल आदि सामग्री को प्राप्त होकर वैराग्य वश दीक्षा धारण करते हैं तथा रत्नत्रय से शुद्ध रहते हैं अर्थात् निर्दोष सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
ओर सम्यक्चारित्र के धारके रहते हो हैं। जो कहते हैं कि इस समय महाव्रती नहीं हैं वे नास्तिक हैं उन्हें जिनशासन से बाह्य जानना चाहिये। रत्नत्रय की शुद्धता को प्राप्त हुए निकट भव्य जीव आज भी इस पंचम कालके समय भी इन्द्रपद को प्राप्त होते हैं। न केवल इन्द्रत्व पदको ही प्राप्त होते हैं किन्तु कितने हो मुनि अल्पश्रुत के ज्ञाता होकर भी आत्म भावना के बल से लौकान्तिक देवोंका पद प्राप्त करते हैं। पञ्चम स्वर्ग के अन्त में अन्तिम प्रदेशों में लोकान्तिक देवों के विमान हैं उनमें उत्पन्न होने से वे लौकान्तिक कहलाते हैं इन्हें सुरमुनि-देवर्षि भी कहते हैं वे स्वर्ग में स्थित रहते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं-स्त्री से रहित होते हैं और तीर्थंकरों को सम्बोधने के समय मनुष्य लोक में आते हैं अन्यथा अपने स्थान में ही स्थित रहते हैं।
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