Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 712
________________ -६. ८५] मोक्षप्रामृतम् (पुरिसायारो अप्पा ) पुरुषस्य नरस्याकार आकृतिर्यस्य स पुरुषाकारः, एवं गुण विशिष्टः कः ? आत्मा चेतनस्वभावो जीवतत्वं, (जोई वरणाणदंसगसमग्गो) योगी मुनिः, इत्यनेन गृहस्थस्य मोक्षं त्रुवाणाः सितपटाः प्रत्युक्ता भवन्ति । वरज्ञानदर्शनसमग्रः केवलज्ञानकेवलदर्शनपरिपूर्णः । इत्यनेनाचैतन्यमात्मानं मन्यमानाः कपिलाः शुनका इव निराकृताः । ( सो झायदि सो जो जोई ) एवं गुणविशिष्टमात्मानं यो मुनिया॑यति स योगो ध्यानी भवति । अन्यश्चार्वाको नास्तिको योगिनामा । एवं स्थाने मतान्तराश्रयेण व्याख्यानं कर्तव्यमिति भावः । ( पावहरो भवति णिइंदो ) पापहरस्त्रिषष्ठिप्रकृतिविच्छेदको भवति घातिसंघातघातकः स्यात्, निर्द्वन्द्वः समवसरणागतपरस्परविरोधिजन्तुकलहनिषेधक इत्यर्थः । एवं जिणेहि कहियं सवणाणं सावयाण पुण पुणसु । संसारविणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं ॥४५॥ एतत् जिनः कथितं श्रवणानां श्रावकाणां पुनः पुनः। संसारविनाशकरं सिद्धिकरं कारणं परमम् ॥८५।। विशेषार्थ-यद्यपि जीवत्व सामान्य की अपेक्षा चारों गतिके जीव समान हैं परन्तु मोक्ष का अधिकारी वही जीव है जो वर्तमान में मनुष्याकार परिणमन कर रहा है। इसी प्रकार मनुष्यत्व सामान्य की अपेक्षा गृहस्थ और योगी समान है परन्तु मोक्षका अधिकारी योगी ही है गृहस्थ नहीं है। इस कथन से 'गृहस्थ को मोक्ष होता है। ऐसा कथन करने वाले श्वेताम्बरों का निराकरण हो जाता है। यद्यपि योगित्व सामान्य की अपेक्षा योगो और अरहन्त भगवान् समान हैं तथापि मोक्षके अधिकारी वही योगी हैं जो उत्कृष्ट ज्ञान और दर्शन से परिपूर्ण हैं अर्थात् • अरहन्त अवस्था को प्राप्त हैं। इस कथन से आत्माको अचेतन मानने वाले सांख्यों का निराकरण हो जाता है। इस प्रकार की विशेषताओं से युक्त होकर जो योगो अर्थात् ध्यानी बनता है वह पापहर अर्थात् वेसठ प्रकृतियों का क्षय करने वाला होता है तथा निर्द्वन्द्व होता है अर्थात् समवशरण में आगत परस्पर विरोधी जीवोंको कलह को दूर करने वाला होता है ।।८४॥ गाथार्य-इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा बार बार कहे हुए वचन मुनियों तथा श्रावकों के संसार को नष्ट करने वाले तथा सिद्धि को प्राप्त कराने वाले उत्कृष्ट कारण स्वरूप है ।।८५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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