________________
-६.८७ ]
मोक्षप्राभृतम्
शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवलक्षणातिचाररहितं । सुरगिरिवन्मेरुपर्वत इव निष्कम्पं चलमलिनत्वरहितं । ( तं शाणे झाइज्जइ ) तज्जिनवचनं सम्यक्त्वं वा ध्याने धर्म्यध्यानावसरे दानपूजादिस्तवनमहापुराणादिशास्त्रश्रवणसामायिकजिनयात्राप्रतिष्ठादिप्रस्तावे घ्यायते मुहुर्मुहुश्चिन्त्यते भाव्यते । ( सावय दुक्खक्खयट्टाए) हे श्रावक सम्यग्दृष्टयुपासक ! हे मुने ! च, श्रावयति धर्ममिति श्रावक इति व्युत्पत्तेः, दुःखक्षयार्थे ।
६६१
सम्मत्तं जो झार्यादि सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो । सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ टुटुकम्माणि ॥८७॥ सम्यक्त्वं यो ध्यायति सम्यग्दृष्टिः भवति स जीवः । सम्यक्त्वपरिणतः पुनः क्षयति दुष्टाष्टकर्माणि ||८७||
( सम्मत्तं जो शायद ) सम्यक्त्वमनयंमाणिक्यं यो जीवो ध्यायति चिन्तयति पुनः पुनर्भावयति । ( सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो ) सम्यग्दृष्टिर्भवति स आसन्न -
Jain Education International
आचार्य मुनि अर्थ भी हो सकता है अतः दोनों को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि हे सम्यग्दृष्टि उपासक अथवा हे मुने ! चतुर्गति भ्रमण रूप दुःख का क्षय करने के लिये अत्यन्त निर्मल अर्थात् शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि प्रशंसा, और अन्यदृष्टि संस्तव इन पाँच अतिचारों से रहित तथा सुमेरु पर्वत के समान अत्यन्त निष्कम्प अर्थात् चल मलिन आदि दोषों से रहित सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर ध्यान के समय अर्थात् धर्म्यध्यान के काल में अथवा दान, पूजन, स्तवन, महापुराणादि शास्त्रों के श्रवण, सामायिक, जिन यात्रा तथा प्रतिष्ठा आदि के अवसर पर बार बार उसीका ध्यान किया जाता है । दान पूजा आदिके समय सम्यक्त्व के बार-बार ध्यान करने की प्रेरणा देनेका अभिप्राय यह है कि इन सबको तू भोगोपभोग प्राप्ति के निमित्त तो नहीं कर रहा है क्योंकि इन सबके करते हुए मिध्यादृष्टि जीवका अभिप्राय भोगोपभोग की प्राप्ति का रहता है और उसके इस अभिप्राय के कारण उसकी यह सब क्रियाएँ बन्धका कारण होती हैं परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव इन सबको करते हुए आत्मा के क्षायक भावको ही प्राप्त करनेका अभिप्राय रखता है अतः बन्धका अभाव होकर दुःखका क्षय होता है ||८६ ॥
गाथार्थ - जो जीव सम्यक्त्व का ध्यान करता है वह सम्यग्दृष्टि हो जाता है और सम्यक्त्व रूप परिणत हुआ जीव दुष्ट आठ कर्मोंका क्षय करता है ॥८७॥ :
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org