Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभृते . [६: ५५कर्मास्रवहेतुर्भवति । ( सो तेण दु अण्णाणी ) स साधुर्मोक्षेऽपि रागभाव कुर्वाणः तेन कारणेन पुण्यकर्मबन्धहेतुत्वादज्ञानी भवति--मूढः स्यात् ( आदसहावस्स विवरीदो ) आत्मस्वभावान्निविकल्पसमाधिलक्षणात्मध्यानरूपाद्विपरीतः । तथा चोक्तमेकत्वसप्तत्यां
स्पृहा मोक्षेऽपि मोहोत्था तन्निषेधाय जायते । अन्यस्मै तत्कथं शान्ताः स्पृहयन्ति मुमुक्षुवः ॥ .
जैसा कि एकत्व सप्तति में कहा गया है
स्पृहा-जब मोह से उत्पन्न हुई मोक्षकी इच्छा भी मोक्षके निषेध के लिये होती है तब शान्त मुमुक्षु जन अन्य पदार्थ की इच्छा कैसे कर सकते हैं ?
[ रागभाव मात्र बन्धका कारण है अतः वह राग चाहे इष्ट विषय सम्बन्धी हो चाहे मोक्ष सम्बन्धी। यह जुदी है कि इष्ट विषय सम्बन्धी राग पाप कर्मके बन्धका कारण है और मोक्ष का राग पुण्य बन्धका कारण है। चन्दन यद्यपि ठण्डा होता है तथापि उसमें लगी आग जलाने का ही काम करती है। जो इस राग भावको उपादेय मानता है वह अज्ञानी है तथा आत्म स्वभाव से विपरीत है। यह कथन कर्म बन्धन को अपेक्षा जानना चाहिये वैसे दोनों रागोंमें तारतम्य बहुत है। विषय सम्बन्धी राग संसार का ही कारण है परन्तु मोक्ष सम्बन्धो राग परम्परा से मोक्षका भी कारण है। . इस गाथा में 'जहाँ' शब्द नहीं है तथा 'मोक्खस्स' के साथ 'कारणं' . शब्द प्रथमान्त पृथक् दिया हुआ है इसलिये एक अर्थ यह भी समझ में आता है
"भाव ही आस्रव का हेतु है, भाव ही मोक्षका कारण है और उस भाव से ही यह जीव अज्ञानी तथा आत्म स्वभाव से विपरीत होता है।"
भावार्थ-शुभ-अशुभ रागरूप भाव कर्मास्रवका हेतु है, निर्विकल्प समाधि रूप भाव मोक्षका कारण है तथा मोह रूप भावके कारण यह जीव अज्ञानी तथा निर्विकल्पसमाधि रूप आत्मस्वभाव से च्युत होता है।
१. पद्मनन्दि पञ्च विशती।
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