________________
-६. ५५]
मोक्षप्राभृतम्
चित्रालेखनकर्मभिमनसिजव्यापारास्मृतर्गाढाभ्यासपुरःस्थितप्रियतमापादप्रणामक्रमैः । स्वप्ने संगमविप्रयोगविषयप्रीत्यप्रमोदागमैरित्थं वेषमुनिदिनानि गमयत्युत्कंठितः
कानने ॥१॥ ( सो तेण दु अण्णाणी ) इत्यादिसुदतीचिन्तनेनाज्ञानी मूढः कथ्यते । ( णाणी एत्तो दु विवरीदो ) ज्ञानी निर्मोहो मुनिः एतस्मादुक्तलक्षणात् साधोविपरीतः शुभवस्तुयोगे सति रागं न करोतीति तात्पर्यार्थः ।
आसवहेदू य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि । सो तेण दु अण्णाणी आदसहावस्स विवरोदो ॥५५॥
आस्रवहेतुश्च तथा भावो मोक्षस्य कारणं भवति ।
स तेन तु अज्ञानी आत्मस्वभावात् विपरीतः ॥५५।। (आसवहेदू य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि) आस्रवहेतुश्च यथा यथेष्टवनितादिविषये राग आस्रवहेतुर्भवति तथा निर्विकल्प समाधि विना मोक्षस्यापि रागः
और भी कहा हैचित्रालेखन-वह वेषधारी मुनि कभी प्रियतमा का चित्र बनाने बैठता था पर कामको सारपूर्ण व्यापार अर्थात् संभोग के स्मरण से उसे बीच में ही भूल जाता था। कभी प्रगाढ संस्कार के कारण उसे प्रियतमा सामने बैठी दिखती थी और वह उसके चरणों में प्रणाम करता था। कभी स्वप्नमें संगम होनेसे प्रसन्न हो उठता था और वियोग से दुखी हो जाता था इस प्रकार वेषको धारण करने वाला वह मुनि उत्कृष्ठित होकर वन में दिन व्यतीत करता था ॥१॥
गाथार्थ-जिस प्रकार इष्ट विषय का राग कर्मास्रव का हेतु है उसी प्रकार मोक्ष विषयक राग भी कर्मास्रव का हेतु है और इसी रागभाव के कारण यह जीव अज्ञानी तथा आत्म स्वभाव से विपरीत होता है ॥५५॥
विशेषार्थ-जिस प्रकार इष्ट वनिता आदि विषय का राग कर्मास्रवका कारण होता है उसी प्रकार निर्विकल्प समाधि के बिना मोक्ष का भो राग कर्मास्रव का हेतु होता है। मोक्ष विषयक रागभाव कर्मक्षय का कारण न होकर पुण्य कर्म बन्धका कारण होता है अतः उस रागभाव के कारण यह जीव अज्ञानी अर्थात् निर्विकल्प समाधि रूप आत्म स्वभाव से विपरीत होता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org