Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्नाभृते १६.५७-१८गाणं चरित्तहीणं दंसणहोणं तवेहि संजुत्तं । ... अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं ॥५७॥
ज्ञानं चारित्रहीनं दर्शनहीनं तपोभिः संयुक्तम् ।
अन्येषु भावरहितं लिङ्गग्रहणेन किं सौख्यम् ॥५७॥ . ( णाणं चरित्तहीणं ) ज्ञानं चरित्रहीनं सौख्यकरं न भवतीति सम्बन्धः । (दसणहीणं तवेहि संजुत्तं ) दर्शनहीनं सम्यग्दर्शनरत्नरहितं तपोभिः संयुक्तं कर्म सौख्यकरं न भवतीति सम्बन्धः । ( अण्णेसु भावरहियं ) अन्येषु षडावश्यकादिषु. भावरहितं कर्म । ( लिंगग्गहणेण किं सोक्खं ) लिंगग्रहणेन वेषमात्रेण आत्मभावनारहितेन कर्मणा किं सौख्यं भवति–अपितु सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षसुखं न भवतीति भावार्थः।
अच्चेयणं पि चेदा जो मण्णइ सो हवेइ अण्णाणी। सो पुण गाणी भणिओ जो मण्णइ चेयणे चेदा ॥५८॥ अचेतनमपि चेतयितारं यो मन्यते स भवति अज्ञानी । स पुन ज्ञानी भणितः यो मन्यते चेतने चेतयितारम् ॥५८।।
गाथार्थ चारित्र रहित ज्ञान सुख करने वाला नहीं है, सम्यग्दर्शन से रहित तपों से युक्त कर्म सुख करने वाला नहीं है तथा छह आवश्यक आदि अन्य कार्यों में भी भाव रहित प्रवृत्ति सुख करने वाली नहीं है फिर मात्र लिङ्ग ग्रहण करनेसे क्या सुख मिल जायगा ? ॥१७॥
विशेषार्थ-चारित्र के बिना ज्ञान कार्यकारी नहीं है, सम्यग्दर्शन से रहित तपश्चरण कार्यकारी नहीं है इसी तरह छह आवश्यक आदि में भाव रहित प्रवृत्ति भी कार्यकारी नहीं है फिर भी आत्म भावना से रहित वेष मात्र से क्या सुख हो सकता है ? अर्थात् उससे सर्वकर्म क्षय रूप मोक्ष सुख प्राप्त नहीं हो सकता है ॥५७॥
[इस गाथा का एक भाव यह भी हो सकता है-हे साधो ! तेरा ज्ञान यथार्थ चारित्र से रहित है तेरा तपश्चरण सम्यग्दर्शन से रहित है तथा तेरा अन्य कार्य भो भाव से रहित है अतः तुझे लिङ्ग ग्रहण से-मात्र वेष धारण से क्या सुख प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं।
गाथार्थ-जो अचेतन को भी चेतयिता मानता है वह अज्ञानो है और जो चेतन को चेतयिता मानता है वह ज्ञानी कहा गया है ।।५८॥
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