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-६. ६९-७० ]
मोक्षप्राभृतम्
परमाणुपमाणं वा परदव्वे रवि हवेदि मोहादो । सो मूढो अण्णाणी आवसहावस्स विवरदो ॥६९॥ परमाणुप्रमाणं वा परदव्ये रति र्भवति मोहात् । स मूढोऽज्ञानी आत्मस्वभावाद्विपरीतः ॥ ६९ ॥
( परमाणुपमाणं वा ) परमाणु प्रमाणं वा । ( परदव्वे रदि हवेदि मोहादो ) परद्रव्ये रतिभर्वति मोहादज्ञानात् परमाणुमात्रापि रतिर्मोहादज्ञानाद्भवति, किमुच्यते बव्ही रतिः ? महती रतिस्तु अज्ञानाद्भवत्येव । ( सो मूढो अण्णाणी ) यस्य परद्रव्ये स्त्र्यादिविषये रतिभर्वति स मुनिमूढः तस्यैव पर्यायोऽज्ञानीति । ( आदसहावस्स विवरीदो ) स मुनिरात्मस्वभावाद्विपरीतः परद्रव्यरत इत्युच्यते बहिरात्मा कथ्यत इति भावार्थ: । एवं ज्ञात्वा परमात्मानं परित्यज्य परद्रव्ये रतिनं कर्तव्येति तात्पर्यार्थः ।
अप्पा झायंताणं दंसणसुद्धीण दिढचरित्ताणं । होवि धुवं णिव्वाणं विसऐसु विरतचित्ताणं ॥७०॥ आत्मानं ध्यायतां दर्शनशुद्धीनां दृढचारित्राणाम् । भवति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तानाम् ॥ ७० ॥
गाथार्थ - जिसकी अज्ञान वश परद्रव्यमें परमाणु प्रमाण भी रति है वह मूढ़ है, अज्ञानी है और आत्मस्वभाव से विपरीत है ॥ ६९ ॥
विशेषार्थ - परद्रव्य विषयक रति अज्ञान के कारण होती है। जब कि परमाणु प्रमाण रति भी अज्ञान के कारण होती है तब अधिक रति तो अज्ञान से होती ही है । जिस साधु की स्त्री आदि परद्रव्य में रति है वह साधु मूढ है, उसीका दूसरा नाम अज्ञानी है, ऐसा साधु आत्मस्वभाव से विपरीत है । परद्रव्य में रत रहने वाला साधु बहिरात्मा कहा जाता है । ऐसा जान परमात्माको छोड़कर द्रव्यमें रति नहीं करना चाहिये || ६९ ||
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गाथार्थ - जो आत्माका ध्यान करते हैं, जिनके सम्यग्दर्शन की शुद्धि विद्यमान है, जो दृढ़चारित्र के धारक हैं तथा जिनका चित्त विषयों से बिरक्त है ऐसे पुरुषों को निश्चित ही निर्वाण प्राप्त होता है ॥ ७० ॥
१. परमाणुमित्तयं पि हु रायादीणं तु विज्जदे जस्स ।
वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरोवि ॥ २०१ ॥ अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयाणंतो । कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयातो ॥ २०२ ॥
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- समयसार
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