Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 700
________________ -६. ७२] मोक्षप्राभृतम् ६४७ नित्यं-सर्वकालं । ( अप्पे ) आत्मनि । ( सभावणा कुज्जा) स्वभावनां आत्मभावनां कुर्यात् । कथमिति चेत् ? इयमिष्टवनिता अनन्तकेवलज्ञानमयी वर्तते यथा ममात्मानन्तकेवलज्ञानमयो वर्तते । इयमहं च द्वावपि केवलज्ञानिनौ वर्तावहे । तेन इयमप्यात्मा ममेति को नाम पृथग्वतंते येन सह स्नेहं करोमि । तथा चोपनिषद् यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानतः । तत्र को मोहः कश्शोक एतत्वमनुपश्यतः ॥ १ ॥ जिंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहएसु य । सत्तूणं चेव बंधूणं चारितं समभावदो ॥७२॥ निन्दायां च प्रशंसायां दुःखे च सुखेषु च । शत्रूणां चैव बन्धूनां चारित्रं समभावतः ॥७२।। (णिदाए य पसंसाए ) निन्दायां प्रशंसायां च समभावतश्चारित्रं भवतोति सम्बन्धः । ( दुक्खे य सुहएसु य ) दुखे च सुखके च समागतेष्वित्युपस्कारः । ( सत्तूणं चेव बंधूण ) शत्रुषां चैव बन्धूनां समायोगे इत्युपस्कारः। ( चारित्तं उसके संसार की वृद्धि होती है परन्तु योगी ज्ञानी मनुष्य स्त्री को देखकर विचार करता है कि जिस प्रकार मेरी आत्मा अनन्त केवल ज्ञानमय है उसी प्रकार इस स्त्री की आत्मा भी अनन्त केवल ज्ञानमयी है। यह स्त्री और मैं-दोनों ही केवल ज्ञानमय हैं। इस कारण यह स्त्री भी मेरी आत्मा है मुझसे पृथक् इसमें है ही क्या ? जिससे स्नेह करूं। उपनिषद् में भी ऐसा कहा है यस्मिन्-जिस एकत्व के प्राप्त होनेपर ज्ञानी जीवके समस्त भूत आत्मस्वरूप ही होजाते हैं उस एकत्व भावको में प्राप्त हो चुका हूँ अतः मुझे मोह क्या है ? और शोक क्या है ? अर्थात् एकत्व के प्राप्त होनेपर आत्मा के राम और द्वेष दोनों नष्ट हो जाते हैं। [पं० जयचन्द्र जी ने अपनी वनिका में "जेणरागो परे दव्वे" ऐसा पाठ स्वीकृत कर यह अर्थ प्रकट किया है-च कि पर द्रव्य सम्बन्धी राग संसारका कारण है इस लिये योगी को निरन्तर आत्मा में ही आत्म भावना करना चाहिये । परन्तु इस अर्थ में 'तेणावि-तेनापि' यहां तेन शब्दके साथ दिये हुए अपि शब्दकी निरर्थकता सिद्ध होती है।] .' गापार्ष-निन्दा और प्रशंसा, दुःख और सुख तथा शत्रु और मित्र · में समभाव से ही चारित्र होता है ॥७२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org


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