Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-६.६७ ]
मोक्षप्राभृतम्
६४३
( अप्पा गाऊण णरा ) आत्मानं ज्ञात्वा आत्मास्तीति सम्यग्विज्ञाय नरा वहिरात्मजीवाः । ( केई सब्भावपब्भट्ठा) केचित् सद्भावप्रभ्रष्टाः केचित् विवक्षिताः सन् समीचिनो भावः सद्भावः निजात्मभावना तस्मात्प्रभ्रष्टा निजशुद्धबुद्ध कस्वभावात्मभावनाप्रच्युता विषयसुखदुर्भावनासु रता इत्यर्थ: । ( हिडंति चाउरंग ) हिण्डन्ते परिभ्रमन्ति पर्यटनं कुर्वन्ति चाउरंगं - चतुरंगे भवं चातुरंगं चतुर्गतिसंसारसंसरणं यथा भवत्येवं । ( विसए सु विमोहिया मूढा ) विषयेषु पंचेन्द्रियार्थेषु स्पर्शरसगन्धवर्णशब्देषु विमोहिता लोभ गताः, ते च विषया अनादिकाले जीवेनास्वादिताः, आत्मोत्थस्वाघीनं सुखं कदाचिदपि न प्राप्ताः । तथा चोक्तं
अदृष्टं किं किमस्पृष्टं किमनाघ्रातमश्रुतं ।
किमनास्वादितं येन पुनर्नवमिवेक्ष्यते ॥ || भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ॥ २ ॥
वियेषु विमोहिता ये ते मूढा अज्ञानिनो बहिरात्मन इत्यर्थः । तेन वहिरात्मभावं परित्यज्यात्मभावना कर्तव्या ।
विशेषार्थ - कितने हो बहिरात्मा जीव किसी तरह आत्मा को जान भी लेते हैं परन्तु शुद्ध बुद्धक स्वभाव आत्मा की भावना से भ्रष्ट होकर पंचेन्द्रियों के स्पर्श रसगन्ध वर्णं और शब्द रूप विषयों में लुभा जाते हैं और उसके फल स्वरूप चतुरङ्ग - चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। इस जीवने पञ्चेन्द्रियों के विषय अनादि कालसे प्राप्त किये परन्तु आत्मोत्थ स्वाधीन सुख कभी भी प्राप्त नहीं किया है। जैसा कि कहा है
अदृष्ट-इन विषयों में ऐसा कौन विषय है जिसे इस जीवने पहले न देखा हो, न छूआ हो, न सुधा हो, न सुना हो, न चखा हो, जिससे कि वह नवोन के समान दिखाई देता है ॥ १ ॥
भक्तोज्झिता — मेरे द्वारा सभी पुद्गल बार बार भोगकर छोड़े गये हैं फिर आज मुझ ज्ञानी की जूठन की तरह उन विषयों में मोह वश इच्छा करना क्या है ?
जो जीव विषयों में मोहित हैं वे मूढ़ हैं - अज्ञानी हैं, बहिरात्मा हैं, अतः बहिरात्मभाव को छोड़कर आत्म भावना करना चाहिये ॥ ६७ ॥
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